________________ प्रथमः सर्गः परिहार है, नल विचारदृक्-विचारसे इन्साफको देखनेवाले और चारदृक् अर्थात् वे चारों ( गुप्तचरों ) से सब राष्ट्र के व्यवहारोंको देखनेवाले थे // 13 // टिप्पणी - प्रतीपभूपः प्रतीपाश्च ते भूपाः, तः (क० धा० ) / विरुद्धधर्म:विरुद्धाश्च ते धर्माः, तैः ( क० धा० ) / ततः = तस्मात् इति, तद्+तसिल / भिया = "भीतिभॊः साध्वसं भयम् / " इत्यमरः / भेत्तृता = भिनत्तीति भेत्ता, भिद् + तृच् / भेत्तुर्भावः, भेत्तृ + तल +टाप् / 'भेत्तृता' पदके दो अर्थ हैं - भेदनीति कराना और व्यावर्तकता अर्थात् दूसरेसे व्यावृत्ति कराना / अमित्रजित्न मित्राणि अमित्राः ( नन्० ) अमित्रान् ( शत्रून् ) जयतीति अमित्रजित् / अमित्र+जि+क्विप् ( उपद०)। मित्रजित्-मित्रं जयतीति, मित्र+जि+ क्विप् ( उपपद०)। यहाँपर अमित्रजित् अर्थात् जो मित्रजित्से भिन्न हैं वे कैसे मित्रजित होंगे इस प्रकार विरोध प्रतीत होता है, इसका समाधान है--ओजसा: प्रतापसे अमित्रजित् अर्थात् अमित्रों ( शत्रुओं) को जीतनेवाले और ओजसा तेजसे मित्रजित् अर्थात् मित्र (सूर्य) को जीतनेवाले। विचारदृक् विचारं पश्यति, विचारदृश् + क्विन् ( उपपद०)। चारदृक्-चारा एव दृशो यस्य सः (बहु०)। इसी तरह नल विचारदृक् अर्थात् चारदृक्से भिन्न होकर भी चारदृक थे, यहाँपर भी विरोध प्रतीत होता है, इसका समाधान है महाराज नल विचारदृक् विचारको देखनेवाले थे एवम् चारदृक् अर्थात् चार ( गुप्तचर ) ही उनके नेत्र थे, गुप्तचरों के द्वारसे नल स्वराष्ट्र और परराष्ट्रोंके सब व्यवहारोंको देखते थे यह तात्पर्य है / अवर्तत = "वृतु वर्तने" धातुके लङ+ त सूर्यके समान तेजवाले और गुप्तचररूप नेत्रोंवाले नलसे डरकर शत्रुओंने भेद और वरको छोड़ा यह भाव है। इस पद्यमें 'प्रतीपभूपरिव" यहाँपर उपमा है और "अमित्रजित् मित्रजित्, विचारदक् चारदृक्" इन अंशोंमें विरोध अलङ्कार और 'किं' शब्दके सम्भावनाका बोधक होनेसे उत्प्रेक्षा इस प्रकार तीन अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव होनेसे सङ्कर अलङ्कार हुआ है / 13 / दोजसस्तयशसः स्थिताविमो वृषेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति भानो: परिवेषकेतवात्तदा विषिः कुण्डलनां विषोरपि // 14 / / अन्वय:-विधिः तदोजसः तद्यशसः स्थितो इमो वृथा इति यदा यदा चित्ते कुरुते, तदा परिवेषकेतवात् भानोः विधो: अपि कुण्डलनां तनोति // 14 // व्याख्या-विधिः = ब्रह्मा, तदोजसः = नलतेजसः, तद्यशसः = नलकीतः स्थितौ = विद्यमानतायाम्, इमो-भानुविध, सूर्यचन्द्रावित्यर्थः / वृथा व्यर्थप्रायो,