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________________ चतुर्थः सर्गः तापिनी, अन्तर+त+णिच् + डीप्+सु ( उप० ), समपद्यत-सम्+पद+ लङ+त। जैसे ज्वरवाले मनुष्यको स्नान करनेसे विषम ज्वर होता है, उसी तरह कामज्वरवाली दमयन्तीको प्रिय नलके कथारूप तालाबमें स्नान करनेसे विषम परिणाम हुआ, यह अभिप्राय है। इस पद्यमें ज्वरको हटानेके लिए जलमें स्नान करनेसे और भी ज्वरके वृद्धिरूप अनर्थकी संघटनासे विषम अलङ्कार हुआ है / जैसे कि उसका लक्षण है "गुणी क्रिये वा यत्स्यातां विरुद्ध हेतुकार्ययोः / यदारब्धस्य वैफल्यमनर्थस्य च सम्भवः / / विरूपयोः सङ्घटना या च तद्विषमं मतम् / ( सा० द० 10-91) बारह प्रकारकी कामदशाओंके पक्षमें यह नवमी, संज्वरावस्था है / बारह कामदशाएँ जैसे कि "चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः सङ्कल्पोऽथ प्रलापिता। . जागरः कार्यमरतिर्लज्जात्यागोऽथ सज्वरः / / उन्मादो मूर्च्छनं चैव मरणं चरमं विदुः // 2 // ध्रुवमधोतवतीयमधीरतां दयितदूतपतद्गतिवेगतः। स्थितिविरोधकरी घणुकोदरी, तदुवितः स हि यो यवनन्तरः // 3 // अन्वयः-घणुकोदरी इयं स्थितिविरोधकरीम् अधीरतां दयितदूतपतद्गतिवेगतः अधीतवती / हि यो यदनन्तरः स तदुदितः। व्याख्या-घणुकोदरी=अतिकृशोदरी, इयं दमयन्ती, स्थितिविरोधकरी=स्त्रीमर्यादाविरोधहेतुम्, अवस्थानविरोधकारणं च, अधीरतां=चपलताम्, एकस्थानाऽनवस्थानं च, दयितदूतपतद्गतिवेगतः=प्रियदूतपक्षिगमनवेगात्, अधीतवती = गृहीतवती, प्राप्तवतीति भावः / उक्तमर्थमर्थान्तरन्यासेन समर्थयते- तदुदित इति / हि= यतः, यः जनः, यदनन्तरः=यत्सन्निहितः, सः जनः, तदुदितः = तदुत्पन्नः, ध्रुवं किमु / अनुवाद-अत्यन्त कृश उदरवाली यह ( दमयन्ती) मर्यादा वा स्थितिका विरोध करनेवाले चञ्चल भाव ( अस्थिरता ) को प्रिय नलके दूत पक्षी( हंस )के गतिवेगसे प्राप्त हुई, क्योंकि जो ( भाव ) जिसके निकट रहता है, वह उससे उत्पन्न हुआ है क्या ? ऐसा जाना जाता है। टिप्पणी-घणुकोदरी=घणुकम् ( इव ) उदरं यस्याः सा ( बहु० ) / स्थितिविरोधकर्त-स्थितेविरोधः (10 त०), "संस्था तु मर्यादा धारणा
SR No.032779
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year
Total Pages1098
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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