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________________ (प्रकाशकीय) भारतीय वाङ्मय को जैन परम्परा ने प्रचुर समृद्धि प्रदान की है। इस योगदान के पीछे अनेकों जैन श्रमणों तथा विद्वानों की अखूट साधना का हाथ रहा है। जैसे आकाश के असंख्य तारा गण अपनी आभा निरन्तर बिखराते रहते हैं वैसे ही भगवान महावीर की परम्परा के असंख्य श्रमणों-विद्वानों की कृतियों की आभा से भारतीय ज्ञानाकाश आभासित है। इन ज्ञान-साधकों के समूह में कतिपय ऐसे व्यक्तित्व भी उभरे हैं जिन्हें सूर्य-चन्द्र की संज्ञा दी जा सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी ऐसे ही अनुपम मनीषी थे। उन्हें हरिभद्रसूरि तथा हेमचन्द्राचार्य की परम्परा का अंतिम बहुमुखी प्रतिभावान विद्वान माना जाता है। ___प्राकृत भारती तथा पारस प्रकाशन ऐसे प्रखर ज्योतिर्धर मनीषी की एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक कति के प्रकाशन को गौरव का अवसर मानती हैं। नवीन-न्याय के जैन युग का आरंभ करने वाले यशोविजय जी की तर्काधारित चिन्तन शैली में खरतरगच्छ के महान अध्यात्म-योगी श्रीमद् आनन्दघनजी से मिलन के पश्चात् एक अनोखा परिवर्तन आया। वे आध्यात्मिक और समन्वय-मूलक चिन्तन दिशा की ओर मुड गये। ज्ञानसार में वही आध्यात्मिक चिन्तन तथा गीता व योग-दर्शन का समन्वय दिखाई देता है। हमें विश्वास है कि हिन्दी पद्य-गद्यानुवाद तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित यह ग्रन्थ हमारे चिन्तन शील पाठकों को नई दिशा प्रदान करेगा। हम गणिवर्य मणिप्रभसागर जी के आभारी हैं कि उन्होंने अपने काव्यमय अनुवाद को प्रकाशित करने का अवसर प्रदान किया। अंग्रेजी अनुवाद के लिए श्रीमती रीता कुहाड तथा श्री सुरेन्द्र बोथरा का धन्यवाद /
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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