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________________ . 14 उपाध्याय यशोविजयजी एक संक्षिप्त परिचय मेहसाना से पाटण जाने वाली रेल लाइन पर दूसरा स्टेशन धीणोज आता है। यहां से चार मील पश्चिम दिशा में चलें तो रूपेण नदी के तट पर एक गांव आएगा। जिसका नाम है कनोड़ा या कणोदा अथवा कन्होडु / विक्रम संवत की सत्रहवीं शताब्दी के आठवें दशक की बात होगी, इस गांव में एक जैन वणिक युगल रहता था। उनके दो पुत्र थे। परिवार बड़ा धार्मिक व आस्थावान था। कहते हैं कि माता का नियम था कि वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर गुरु महाराज से भक्तामर स्तोत्र सुनती थीं और तब लौट कर अन्न ग्रहण करती थीं। माता के साथ दोनों बालक भी जाया करते थे। एक बार वर्षा काल में अस्वस्थ हो जाने के कारण माता मंदिर में न जा सकी। उसे जब अन्न ग्रहण किए बिना तीन दिन बीत गए तो चौथे दिन लगभग पांच वर्ष के नन्हें बालक ने माता से पूछा कि वे भोजन क्यों नहीं कर रहीं। माता ने बताया कि वे भक्तामर स्तोत्र सुने बिना अन्न ग्रहण नहीं करतीं। इस पर बालक ने कहा, “आप कहें तो मैं आपको भक्तामर स्तोत्र सुना दूं / " माता के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने पूछा- “तुझे यह कठिन स्तोत्र कैसे आता है।” बालक ने सहज उत्तर दिया, “आप मुझे अपने साथ गुरु महाराज के यहां ले जाया करती हैं, वहीं जब उन्होंने आपको यह स्तोत्र सुनाया तभी मैने भी सुना था। मुझे याद हो गया।” और उस नन्हें से बालक ने माता को भक्तामर का पाठ सुना कर उन्हें भोजन करवाया। कहते हैं कि उस पाठ में मात्र एक भूल थी। इस तीव्र बुद्धि वाले मेधावी बालक का नाम जशवन्त था। ज्ञान का यही बीज कालक्रम से विकसित हो एक विशाल वृक्ष बन गया, जिसके फल आज भी अपने अपूर्व गुणों से मानवता को प्रभावित करते हैं। हम इस महान आत्मा को न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजय जी के नाम से जानते
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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