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________________ ज्ञानसार एक ऐसा ही अनमोल चिंतन कोष है। इसमें विषयों की विविधता होने पर भी एकलक्षी परिणाम होने से क्रमबद्धता की लय स्पष्टत: परिलक्षित होती है। ___ इस ग्रन्थ में उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने कहीं झिंझोडा है, कहीं जगाया है, कहीं सहलाया है, कहीं दुत्कारा है, कहीं सत्कारा है, कहीं भिगोया है, कहीं पिरोया है, कहीं तोडा है, कहीं जोडा है, कहीं कान मरोडा है, कहीं दिया है, कहीं लिया है, कहीं उठाया है, और कहीं उखाडा है। ज्ञान-द्वार से ज्ञान महल में प्रवेश की यह एक अद्भुत कृति है। मुख्य रूप से श्रमण वर्ग को निर्दिष्ट कर लिखी गई यह कृति हर आत्म-जिज्ञासु का प्रेरणा पाथेय है। संक्षिप्त स्वर-शब्दों में गहन/अतिगहन विषय की सुस्पष्टता इसकी विशिष्टता है। सोये अलसाये व्यक्ति के सिर पर हथौडे की चोट करके फिर सहलाने की प्रक्रिया इस कृति में छिपी है। वे जानते थे कि साधक को चोट करने में कोई भय या खतरा नहीं है, क्योंकि मूल उद्देश्य जगाने का है ! इसमें अपमान की पीडा नहीं है, क्योंकि मान-अपमान से परे स्थितप्रज्ञता को पाने का उद्देश्य है। सन् 1991 में पूना चातुर्मास की ओर विहार करते समय लोनावला जैन मंदिर में रुके थे। दोपहर के समय में स्वाध्याय के उद्देश्य से सामने खुली पडी आलमारी में बिछी किताबें टटोलनी शुरू की। धूल झडकाकर कुछ पुस्तकें देखीं तो उसी में ज्ञानसार मूल की एक पतली सी जीर्ण-शीर्ण पुस्तक हाथ लगी। उसका नाम देखते ही कुछ वर्ष पूर्व पूज्य गुरुदेव स्व. आचार्य भगवंत श्री जिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की बातें स्मृति पटल पर उभर आईं। उन्होंने आगम-वाचना के दौरान एक बार ज्ञानसार का स्वाध्याय करने का सूचन किया था। पर उन दिनों पुस्तक प्राप्त न होने के कारण नहीं पढ़ सका और बाद में अन्यान्य कार्यों व उपक्रमों की व्यस्तता में बात भूल सी गया। आज इस पुस्तक को देखते ही सारी यादें जेहन में ताजा हो गईं। वह कुल 40 पेज की पतली पुस्तक थी जिसमें कुल 32 अष्टक छपे थे। उसे पढ़ना प्रारम्भ किया तो पढता ही चला गया। उद्बोधन और प्रेरणा
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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