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________________ 1231 अशुद्धम् . शुद्धम् पत्रम् 104 105 112 113 दीर्घोपाल्स्ये हिंथार्थस्याणिकर्ता प्रतुङ्क्त माक्षणे कृरून् किंतहि . द्रारम् गभिः जिनायतनेभ्यः वर्तमाद् जाडयस्यैतद् कृच्छाहा आवभाग कल्पाणधर्मा सुहरिततृणसोमाजभ्मात् मूर्खभातृकः समासातो वर्वन्ते // 2 // 14 // गोमिर्वपावान् कालस्य नानुलिप्तपदेनकार्थ्यम् यवं मकि द्विगोरेननोऽट् // 13 // 159 // दीर्घोपान्त्यस्ये हिंसार्थस्याणिकर्ता प्रयुक्त मोक्षणे कुरून् किंतर्हि द्वारम् गमिः जिनानामायतनेभ्यः वर्तमानाद् जाड्यस्यैतद् कृच्छाद्वा अविभाग कल्याणधर्मा सुहरिततृणसोमाज्जम्भात् मूर्खभ्रातृकः समासान्तो वर्तन्ते // 32 // 14 // गोभिर्वपावान् 137 1 काकस्य 178 " - नानुलिप्तपदेनैकार्थ्यम् एवं किम् द्विगोरननोऽट् // 3310159 // ro ऊर्वष्ठीवम् उर्वष्ठीवम् भूवौ सहोक्ता सहोक्तो ध्रुवौ " 205 * सहोक्तौ सहोक्तौ 2068
SR No.032767
Book TitleHaimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirijashankar Mayashankar Shastri
PublisherGirijashankar Mayashankar Shastri
Publication Year1931
Total Pages1254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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