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________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा धर्म वह तत्त्व है जो जीव और पुद्गल तत्त्वों की स्वाभाविक गति को चलाये रखे / यह एक, सर्वव्यापी, स्थिर, शाश्वत और रूपहीन तत्त्व है। यह जीव और पुद्गलों की गति का कारण नहीं, अपितु सहकारी मात्र है / जिस तरह पानी मछली की गति का कारण नहीं, सहायक मात्र है, उसी तरह जीव व पुद्गल में गति का सामर्थ्य स्वाभाविक है, पर उसे कार्यान्वित धर्म की सहायता से ही किया जा सकता जीव और पुद्गलों की अगति या स्थिरता का आधार रूप तत्त्व अधर्म है। धर्म की तरह यह भी अगति का कारण न होकर सहायक मात्र है। ___ अस्तिकाय द्रव्य प्रदेशवान् होने से स्थान घेरते हैं / जो द्रव्य अन्य समस्त द्रव्यों को अवकाश प्रदान करता है, आकाश कहा जाता है / आकाश के दो विभाग हैं - लोकाकाश और अलोकाकाश / लोकाकाश वह है, जिसमें विश्व के समस्त पदार्थ समाहित हैं / विश्व से परे का आकाश अलोकाकाश है जो पदार्थ-शून्य है / धर्म और अधर्म लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं।। जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त होता है / जो द्रव्य अन्य द्रव्यों के दशा-परिवर्तन में सहायक हो, काल कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ अपने पर्याय रूप में परिवर्तनशील है। बिना काल परिवर्तन संभव नहीं है। काल के दो प्रकार हैं - पारमार्थिक और व्यावहारिक या समय। पारमार्थिक काल ही मूल काल है जो शाश्वत तत्त्व है / व्यावहारिक काल पारमार्थिक काल का सीमित रूप मात्र है, और उसका आदि और अन्त होता है / काल एकप्रदेशीय ही होने से अणु रूप है और अनन्त अणुओं से मिलकर बना है। आस्त्रव जीव और अजीव स्वभावतः भिन्न, पृथक् एवं स्वतन्त्र द्रव्य हैं, परन्तु इस समस्त व्यावहारिक विश्व में दोनों संयुक्त पाये जाते हैं / यदि ये दोनों द्रव्य स्वतन्त्र एवं पृथक् हैं तो दोनों में समागम कैसे होता है ? इसी समस्या की व्याख्या के लिये आस्रव के तत्त्व को प्रस्तुत किया गया है / जीव और अजीव को जोड़ने वाला तत्त्व आस्रव कहलाता है। आस्रव ही आत्मा की विकृति और बन्ध का कारण है। आश्रूयतेऽनेन कर्म इति / आस्रव ही आत्मा की विकृति और बन्ध का कारण है। इसमें कर्म के पुद्गल आत्मा से चिपक जाते हैं और उसके स्वभाव को आवृत कर देते हैं / कर्मों का जीव से संयुक्त होना ही आस्रव है / इस प्रक्रिया को समझाने के लिये दो प्रकार के दृष्टान्त दिये गये हैं। जिस तरह शहर का गंदा पानी नालियों में बहकर तालाब में एकत्रित होता है और तालाब की निर्मलता को नष्ट कर उसे गन्दा कर देता है, उसी तरह इस संसार की विषय-वासना का मल मन, वाचा और काया के माध्यम से आत्मा में एकत्रित हो, उसे विकृत कर देता है / अथवा, जिस तरह एक स्वच्छ धुले हुए गीले वस्त्र के ऊपर धूल के कण आकार चिपक जाते हैं और उसकी निर्मलता को आवृत कर देते हैं, उसी तरह कर्म के पुद्गल आत्मा से चिपककर, उसके शुद्ध स्वरूप को आवृत्त कर देते हैं /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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