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________________ ( 55 ) और पुत्र के साथ देवलोक चलने को राजा से अनुरोध किया। राजा ने निवेदन किया कि वे अयोध्या की अपनी प्यारी प्रजा को अपने वियोग में व्यथित छोड़कर स्वर्ग नहीं जा सकते / जिस पुण्यराशि का फलभोग वे अकेले बहुत दिन तक कर सकते हैं वह चाहे एक ही दिन में क्षीण क्यों न हो जाय,पर वे अपनी सारी प्रजा के साथ ही अपनी पुण्यराशि का फलभोग करना चाहते हैं / देवराज ने ऐसी ही व्यवस्था करने का वचन दिया / तब सब लोग विमान द्वारा अयोध्या गये। महातपस्वी विश्वामित्र ने समस्त देवताओं के सम्मुख राजपुत्र रोहित को अयोध्या के राजसिंहासन पर अभिषिक्त किया तथा देवराज ने राजारानी तथा उनके प्रजाजनों को विमानों द्वारा स्वर्ग पहुँचवाया। इस अध्याय के ये श्लोक ध्यान देने योग्य हैं कुतः पुष्टानि मित्राणि ? कुतोऽर्थः साम्प्रतं मम ? | प्रतिग्रहः प्रदुष्टो में नाहं यायामधः कथम् 1 // 13 // किमु प्राणान् विमुञ्चामि ? कां दिशं याम्यकिञ्चनः ? / यदि नाशं गमिष्यामि अप्रदाय प्रतिश्रुतम् // 14 // ब्रह्मस्वहृत् कृमिः पापो भविष्याम्यधमाधमः / अथवा प्रेष्यतां यास्ये वरमेवात्मविक्रयः॥१॥ राजा सोच रहे हैं-इस समय दक्षिणा का धन मुझे कहाँ से प्राप्त होगा ? किसी मित्र से मांगूं, तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि मेरे धनवान् मित्र कहाँ हैं ? प्रतिग्रह से प्राप्त कलं, तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वह क्षत्रिय के लिये निन्द्य है। फिर क्या उपाय करूँ ? जिससे मेरी अधोगति न हो // 13 // क्या प्राणों को त्याग , अथवा कहीं चला जाऊँ ? पर ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं क्योंकि प्रतिज्ञा किया हुआ धन विना दिये यदि मर जाऊँगा तो ब्रह्मस्व के हरण का पाप होगा और उससे अधमाधम पापमय कीट होना पड़ेगा। इसलिए उत्तम यह होगा कि प्रात्म-विक्रय कर दूसरे की दासता स्वीकार करूँ और उससे प्राप्त होनेवाले धन को देकर दक्षिणादान की प्रतिज्ञा पूर्ण करूँ // 14,15 // त्यज चिन्तां महाराज ! स्वसत्यमनुपालय | श्मशानवद् वर्जनीयो नरः सत्यबहिष्कृतः // 17 // नातः परतरं धर्म वदन्ति पुरुषस्य तु / यादृशं पुरुषव्याघ्र ! स्वसत्यपरिपालनम् // 18 // अग्निहोत्रमघीतं वा दानाद्याश्चाखिलाः क्रियाः / भजन्ते तस्य वैफल्यं यस्य वाक्यमकारणम् // 16 // सत्यमत्यन्तमुदितं धर्मशास्त्रेषु धीमताम् / तारणायानृतं तद्वत्पातनायाकृतात्मनाम् // 20 //
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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