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________________ ( 53 ) इस अध्याय में बलराम की यह उक्ति ध्यान देने योग्य है - यैराविष्टेन सुमहन्मया पापमिदं कृतम् // 34 // तत्क्षयार्थं चरिष्यामि व्रतं द्वादशवार्षिकम् / स्वकर्मख्यापनं कुर्वन् प्रायश्चित्तमनुत्तमम् / / 3 / / अमर्ष, मद्य, अभिमान और निर्भयता को धिक्कार है, जिनके आवेश में आ मैंने ऐसा महान् पाप कर डाला // 34 // अब इसका क्षय करने के हेतु अपने कुकर्म का बखान करता हुअा बारह वर्ष का व्रत करूँगा / वही मेरे पाप का सर्वोत्तम प्रायश्चित्त होगा / / 35 / / सातवां अध्याय इस अध्याय में जैमिनि के चौथे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया गया है त्रेतायुग में हरिश्चन्द्र नाम के एक बड़े धार्मिक तथा यशस्वी राजा थे / उनके शासनकाल में कभी किसी प्रकार का अकाल नहीं पड़ा / प्रजाजनों पर कभी रोगों का आक्रमण नहीं हुअा। कभी किसी की अकाल मृत्यु नहीं हुई। किसी नागरिक ने कभी कोई अधर्म नहीं किया / धन, बल तथा तप का कभी किसी को अभिमान नहीं हुआ। यौवन का पूर्ण विकास हुए विना कभी कोई स्त्री सन्तान वती नहीं हुई। ऐसा था उनका अनुपम राज्य / एक दिन वे मृगया के निमित्त वन में गये / वहाँ उन्होंने कुछ स्त्रियों के आर्तनाद सुने और उनकी रक्षा के लिए वे उस नाद की अोर दौड़ पड़े। वे सामान्य स्त्रियाँ न थीं वरन् स्त्रीरूप में वे विद्यायें थीं , जिन्हें विश्वामित्र क्षमा, मौन तथा मनःसंयम द्वारा आयत्त करना चाहते थे / राजा को यह रहस्य ज्ञात नहीं हुा / अतः वे उन स्त्रियों की रक्षा का अाश्वासन दे उन्हें सन्तप्त करने वाले पुरुष को कुशन्द कहते हुये उसे दण्ड देने के लिये उसकी खोज करने लगे। उनके शब्दों को सुन विश्वामित्र को क्रोध आ गया। क्रोध आते ही विद्यायें नष्ट हो गई। विश्वामित्र के क्रोध का शमन करने के लिये राजा ने अपना सारा राज्य उन्हें भेट कर दिया / तत्पश्चात् विश्वामित्र ने कहा-"राजन् ! अब तो यह सारा राज्य मेरा हो गया। इसकी किसी वस्तु में अब तुम्हारा स्वत्व नहीं है / अतः अन्य किसी स्थान से इस महादान की दक्षिणा का प्रबन्ध करो।" दक्षिणा का प्रबन्ध करने के लिये राजा अपनी पत्नी शैव्या तथा पुत्र रोहित के साथ राज्य से बाहर जाने को उद्यत हुये / नागरिकों ने भक्ति और प्रेमवश उन्हें घेर लिया और अपने को भी साथ ले चलने का अनुरोध किया। उनके प्रबोधनार्थ राजा थोड़ा
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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