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________________ करण का अस्तित्व मानना ही होगा | पुराण ने जगत् के उस उपादान तत्त्व को त्रिगुणात्मिका प्रकृति, कर्ता को परमेश्वर, उपकरणों को ईश्वरीय परयोग तथा जीव के शुभाशुभ कर्म जनित संस्कार के रूप में वर्णित किया है। मार्कण्डेय पुराण का अग्रिम वचन इस बात का विस्पष्ट निर्देश करता है। अनाद्यन्तं जगद्योनि त्रिगुणप्रभवाव्ययम् / असाम्प्रतमविज्ञेयं ब्रह्माऽग्रे समवर्तत // मा० पु० 45 अ० स्वात्मन्यवस्थितेऽव्यक्ते विकारे प्रतिसंहृते / प्रकृतिः पुरुषश्चैव साधर्म्यणावतिष्ठतः // ____ मा० पु० 46 अ० अहर्मुखे प्रबुद्धस्तु जगदादिरनादिमान् / सर्वहेतुरचिन्त्यात्मा परः कोऽप्यपरक्रियः // , प्रकृतिं पुरुषं चैव प्रविश्याशु जगत्पतिः / क्षोभयामास योगेन परेण परमेश्वरः // , जगत-प्रवाह के प्रवर्तक, प्रकृति के अधीश्वर, जीवकर्मों के साक्षी, अखण्डचैतन्यरूप इस परमेश्वर का साक्षात्कार करने में ही मानवजन्म की कृतार्थता है / इस कार्य के लिए समाज को समुचित सुविधा और अनुकूल अवसर सुलभ करने के लिए ही देश में सुदृढ़, सुव्यवस्थित एवं समुन्नत शासन की आवश्यकता होती है / इसके लिए ही नाना प्रकार की नीतियों का निर्माण, समुज्ज्वल सदाचार का प्रचार, शिक्षा, दीक्षा एवं सामाजिक सङ्गठन आदि कार्यों की अपेक्षा होती है / यदि मानव इससे विमुख है, शासन इस ओर से उदासीन है, शिक्षाविधि एवं सामाजिक व्यवस्था इसके प्रतिकूल है तो उनका कोई मल्य नहीं, कोई उपयोग नहीं। सब निस्सार, निस्तत्त्व और निरर्थक है / बस पुराण का यही आदेश है, यही उपदेश है, यही सिद्धान्त है, यही उद्घोष है / इसका प्रचार, प्रसार और पालन आवश्यक है / अन्यथा भौतिकवादी मानव के विषमय मस्तिष्क से निकला पारमाणविक विज्ञान निश्चय ही मानवता को कवलित कर लेगा / सभ्यता को समाप्त कर देगा / संस्कृति को निःशेष कर देगा। जगत के जीवनदीप को बुझा देगा।
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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