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________________ ( 82 ) के योग्य न रह गया / यही दशा दूसरे और तीसरे पुत्र सुबाहु और शत्रुमर्दन की भी हुई। जब चौथे पुत्र के नामकरण का अवसर प्राया तब राजाने मदालसा को नामकरण का निर्देश किया। मदालसा ने उसका नाम अलर्क रखा। इस नाम की निरर्थकता के सम्बन्ध में राजा के आपत्ति करने पर मदालसा ने पहले तीन पुत्रों के राजा द्वारा रखे गये 'विक्रान्त,' 'सुबाहु' और 'शत्रुमर्दन' नामों की भी निरर्थकता बतायी। उसने कहा कि 'विक्रान्त' का अर्थ है विक्रमवाला। विक्रम का अर्थ है विशिष्ट प्रकार की गति, गतिका कार्य है गतिमान् वस्तु को एक स्थान से विभक्त कर दूसरे स्थान से संयुक्त करना, पर यह आत्मा के सर्वत्र व्याप्त होने से उसमें सम्भव नहीं है / 'सुबाहु' का भी अर्थ है सुन्दर बाहु वाला, किन्तु अात्मा के अमूर्त होने के कारण उसमें बाहु का होना असम्भव है। इसी प्रकार 'शत्रुमर्दन' का अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाला / यह अर्थ भी आत्मा के लिये व्यर्थ है, क्योंकि सब शरीरों में एक ही आत्मा का अधिष्ठान है। जगत् में दो आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है / अतः कोई किसी का शत्रु वा मित्र हो ही नहीं सकता | इस कारण प्रात्मा का 'शत्रुमर्दन' नाम असंगत है / तो फिर जैसे अर्थ की संगति न होने के कारण आप के रखे नाम केवल व्यवहारमात्र के साधक हैं वैसे ही मेरा रखा नाम भी व्यवहारमात्र का साधक है। ऐसी स्थिति में मेरे रखे नाम को निरर्थक कह कर आप मेरा उपालम्भ कैसे कर सकते हैं ? राजा ने मदालसा के तर्क की महत्ता मानली और कहा कि अब इस पुत्र को भी अपनी वही पुरानी विद्या मत पढ़ाना / इसमें ऐसा संस्कार डालने का प्रयत्न करना कि यह प्रवृत्तिमार्ग का अवलम्बन कर देवता, ऋषि, पितर और प्रजाजनों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के अभ्युदय का भाजन हो सके / राजा के निर्देशानुसार रानी ने अपने चौथे पुत्र अलर्क को जो उपदेश दिया वह इस प्रकार है धन्योऽसि रे ! यो वसुधामशत्रुरेकश्चिरं पालयितासि पुत्र ? | तत्पालनादस्तु सुखोपभोगो धर्मात्फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम् / / 35 // धराऽमरान् पर्वसु तर्पयेथाः समीहितं बन्धुषु पूरयेथाः / हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथाः मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथाः // 36 // सदा मुरारिं हृदि चिन्तयेथास्तद्ध्यानतोऽन्तः षडरीञ्जयेथाः / मायां प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिन्तयेथाः // 37 //
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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