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________________ ७८ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. रे ॥ सुनूमि जाग उद्यान वहुं। तो नंदनवन समाने रे ॥१॥ समकित शुभ हीयमे धरो ने । जेहथी सुख विस्तारो रे ॥ नर सुर सवि संपति लहे । ने लहीये नवनो पारो रे ॥२॥ स (आंकणी०) उत्तर दिसि उद्यान थकी। तिहां माली कडो सोहे रे ॥ तिहां एक मयूरी बे मां । प्रसवे नर दीठ मोहे रे ॥३॥ स ॥ तिणे नयरें धनवंत वसे । सागरदत्त जिणदत्त नामोरे॥सारथवाहना सुत बिहूं। माहोमांहे सारे कामोरे ॥४॥ स०॥ तिणे नयरें वेश्या बसे । देवदत्ता नाम प्रसिझा रे ॥ बहु गणिका मांने तेहने। धन धान्ये करी समृका रे ॥५॥ स ॥ सादरदत्त जिणदत्त चेवि जणा । देवदत्तास्युं वन जाय रे ॥ विषय तणा सुख अनुजवे । ते दियमे हर्षित थाय रे ॥६॥ स ॥ हसी रमीने बेवि जणां । वन मालीक ले पेग रे ॥ नव कौतक जोतां हीमे । वनमोरी ये जण दीठा रे ॥ ७ ॥ स० ॥ ऊमी ते केंकार करी। ते बेठी तरुवर माले रे । चित्त चमक्या ते बेवि जणा।
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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