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________________ २१८ श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. पहुता देसंतर ॥ त्रपु देखी घण लाल गिणि बंमि लोह व्ये तेय । एक न मुंकर लोह नरमें दृढ बको एय ॥ ३७ ॥ त्रंब रुप सोवन्न रयण वयराग देखी। आगले जातां लिंत चमत पमतो उवेखी ॥ लोह वणिक एम कहे एह मुरख जाणिके । वलि लेश् मेव्हंत अवर नव नव किम लिज्के ॥ हुं लीधो मुंको नहिय एम घरे श्राव्यो हीण । पाडे पलितावे पमयो दीण खीण मतिहीण ॥३०॥ बीजा बुझिनिधान चात चमते व्यापारें । कुमति डोमि धन कोमि ले आव्या श्रागारें॥ जिम ते हुया सुखी तेम तुम्हे मी कुग्रह । आदरि दरिसण जैन करो अक्षयसुख संग्रह ॥ प्रतिबुद्धो श्रुतसंचली पमिवज्की ब्रतवार । घरे जातां ते पूडियो गुरु आयरिय विचार ॥३॥ कहे त्रण यायरिय शहां परनव उपगारी। शिल्पकला धर्माधिकारि जाणज्यो विचारी ॥ कवण तसु विनय तेय पुण निरतो नाखो। एम जाणंते कांश अम्ह अविनय मन राखो ॥ जगवन् ! बहु अविनय
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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