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________________ ११८ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. मांहि धरी आणंदोरे ॥४॥ सं० सांजलि सह गुरुना मुखनी वाण।। श्राव्यो मुमरिक पासो रे ॥ अनुमति मागे कंमरीक नावीयो । घुमरीक कहे वर नासो रे ॥५॥ स ॥ राजग्रहो तुम्हे एह सहोदरा । ते कहे नथी मुझ काजो रे ॥ घणा महोबव घुमरीक तिहां करे। कंमरीक थयो ऋषिराजो रे ॥६॥ सं० ॥ अंत प्रांत आहारे ते शषि उनगो । व्याप्यो दाह कलीवो रे ॥ थेरा आव्या जिहां घुमरीगिण।। घुमरीक वांदे अतीवो रे ॥ ७ ॥ सं० ॥ ढाल २. (उत्तराध्ययने बोल्यु सोलमेजी-ए देशी.) पुमरीक देखी कंमरीक बलाजी । उषध करावे अनेक ॥ रोग गयो पण आहारे मूीयोजी ।। न करे विहार विवेक ॥ ॥कर्मतणी गति दोहिली जाणीएजी । जेहनो विषम उपाय ॥ सुख मुख जीवें ए विण जोगव्यांजी। बूटे रंक न राय ॥ ए॥ कर्मण ॥ आंकणी ॥ एह जाणी पुंमरीक राजीयोजी।
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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