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________________ 7.(अ) अगवानी : एक नयी आबोहवा की करें क्यों? करे कौन? करें कैसे? गत दो दशकों (1970 से 1989) से मैं कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कर रहा हूँ; अतः विभिन्न संदर्भो में मुझे कई संगोष्ठियों, परिसंवादों, सम्मेलनो, अधिवेशनों, पंचकल्याणकों, अंजन-शलाकाओं, अभिनन्दन-समारोहों, सामाजिक आयोजनों आदि में सम्मिलित होने का अवसर मिला है । इस दरम्यान मेरा कई मुनि-मनीषियों, समाज-सेवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से विविध सामाजिक समस्याओं पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ है । ___ इस बीच मैंने जो कुछ देखा है उस सिलसिले में मेरी कुछ विशेष चिन्ताएँ हैं, जिन्हें मैं नीचे रेखांकित कर रहा हूँ । आशा है आप इन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ कर एक तर्कसंगत अवधि में अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करा रहे हैं ताकि मैं उसकी सूचना समाज को दे सकूँ और उसे बता सकू कि जिन पर उसकी आस्था है वे उसके हित-अहित के बारे में कितने चिन्तित, समर्पित और सक्रिय हैं । चिन्ताएँ इस प्रकार हैं : (1) इन बीस सालों में खान-पान में उल्लेखनीय गिरावट आयी है । समाज में मांसाहार ने सैंध लगायी है और जैन-चोके-की-अस्मिता को धक्का लगा है । धार्मिक संस्कार कम हुए हैं । यदि इस सिलसिले में कोई अहिंसा शॉप या अहिंसा बैकरी या आहार-विज्ञान प्रयोगशाला अथवा खान-पान को ऊँचा उठाने, उसे शुद्ध-स्वाभाविक करने के संदर्भ में कोई गतिविधि शुरू की जाए तो उसमें आपकी सहमति है ? कृपया सूचित करें कि इसे ले कर आपका क्या योगदान हो सकता है? (2) इस अवधि में समाज में उत्सव-प्रियता का एक ऐसा झोंका आया है जिसने लगभग तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों को गौण कर दिया है । यदि लेखा-जोखा लें तो पता चलेगा कि इन पर हमने समीक्षा अवधि में करोड़ों रूपया खर्च किया है; किन्तु नतीजा सिफर रहा है । मुश्किल यह भी है कि हमारे पास ऐसी कोई एजेन्सी (अभिकरण) नहीं है जो इस तरह आयोजित उत्सवों, समारोहों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करे और बताये कि हमें क्या करना था और हमने क्या किया है । औचित्य और सम्यकत्व के लिए लोकमानस बनाने की आवश्यकता से, मैं समझता हूँ, इन संकटापन्न क्षणों में कोई भी इंकार नहीं कर सकता । कृपया आप बतायें कि क्या आप इस तरह की किसी एजेन्सी या इकाई स्थापित करने के पक्ष में हैं ? (3) समीक्ष्य अवधि में सभी जैन तबकों के कतिपय साधुओं में किसी-न-किसी शक्ल में शिथिलाचार फैला है । मेरे पास इस तरह के तथ्यों का एक पुलिन्दा है; किन्तु व्यापक जनहित में मैंने अभी तक इनका कोई उपयोग नहीं किया है । उल्लेखनीय है कि तीर्थकर के खोजविभाग-की-भूमिका इस सिलसिले में गोपनीय होते हुए भी महत्त्वपूर्ण रही है । उसने अपने
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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