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________________ जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे 33 निश्चय काल के संदर्भ में आचार्य उमास्वाति लिखते हैं- वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ 22; अ. 5 ॥ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व के नियामक काल को निश्चय काल कहते हैं अर्थात् पुद्गल के अस्तित्व तथा उसमें होने वाले परिवर्तन या अवस्थान्तर / पर्यायान्तर ही निश्चय काल हैं । नैयायिक सम्प्रदाय एवं वैशेषिक दर्शनकार भी प्रत्येक क्रिया के असमवायी कारण के रूप में काल को स्वीकार करते हैं; वे भीं काल को द्रव्य मानते हैं । काल को द्रव्य माना जाए या नहीं, इस बारे में भी जैन दार्शनिकों में मत - वैभिन्य है । इसका निर्देश करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार स्वयं कहते हैं - कालश्चेत्येके ( तत्त्वार्थ सूत्र; 38, अध्याय - 5 ) अर्थात् काल भी द्रव्य है ऐसा कोई-कोई आचार्य मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में पंचास्तिकाय अर्थात् पाँच द्रव्य : 1. जीव, 2. धर्म (जो गति में सहायक है), 3. अधर्म (जो स्थिति में सहायक है), 4. आकाश और 5. पुद्गल का विशेष महत्त्व है । तथापि दिगम्बर जैन दार्शनिक आचार्य नेमिचन्द्र अपने 'द्रव्य संग्रह' की निम्नोक्त गाथा में कहते हैं कि लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही काल-के-अणु हैं - लोयायासपदेसे इक्किके जे ठिया हु इक्किक्का / रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ वर्तना, परिणाम, क्रिया परत्व, अपरत्व की दृष्टि से निश्चयकाल निरपेक्ष है और वह निश्चयनयाभिमत है, जब तक व्यवहारनय के अनुसार अवकाश के सन्दर्भ में विचार किया जाए तब निश्चयकाल सापेक्ष हो जाता है । उदाहरणतः मान लें कि अवकाश में एक ही पंक्ति में तीन बिन्दु हैं । प्रथम और द्वितीय बिन्दु के बीच तीस लाख किलोमीटर का अन्तर है, वैसे द्वितीय और तृतीय बिन्दु के बीच भी तीस लाख किलोमीटर का अन्तर है अर्थात् प्रथम और तृतीय बिन्दु के बीच साठ लाख किलोमीटर का अन्तर है और उसके बराबर मध्य में द्वितीय बिन्दु है । अब मान लें कि प्रथम बिन्दु पर क्षण-भर के लिए प्रकाश पैदा होता है । यही घटना द्वितीय बिन्दु पर 10 सैकण्ड के बाद दिखायी देगी, उसी क्षण प्रकाश के सन्दर्भ में द्वितीय बिन्दु के लिए वर्तमान क्षण होगी, उसी समय प्रथम बिन्दु के लिए प्रकाश की घटना भूतकालीन घटना बन चुकी है और तृतीय बिन्दु के लिए वही घटना, उसी क्षण भविष्यत्कालीन होगी । इस तरह एक ही क्षण एक स्थान के लिए वर्तमान क्षण होता है, तो अन्य स्थान की अपेक्षा से भूतकाल भी हो सकता है, या भविष्यत्काल भी सकता है । " इस तरह अवकाश - के सन्दर्भ में काल सापेक्ष है । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो काल' (समय) अन्य कुछ है ही नहीं; किन्तु प्रकाश-के-सन्दर्भ में केवल अवकाश के दो बिन्दुओं के का अन्तर ही है और प्रकाश पुद्गल (मैटर) के सूक्ष्म कणों से बना हुआ है । अवकाश और पुद्गल दोनों वास्तविक हैं, अत: काल भी वास्तविक है । यही बात आधुनिक भौतिकी ने भी स्वीकार की है । वह कहती हैं : The speed of a
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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