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________________ जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे 23 इन प्रकारों में कहीं भी प्रकाश को सजीव नहीं बताया गया है; किन्तु प्रकाश और उसके उष्ण स्पर्श को, अग्नि के सजीव होने के लक्षण अर्थात् अग्नि के सजीवत्व का सूचक बताया हैं । इसी सन्दर्भ में आचारांग-नियुक्तिकार 'खजुआ' का दृष्टान्त देते हैं और बताते हैं कि जिस तरह खजुआ जब तक जीवित होता है, तब तक ही प्रकाश देता है; किन्तु वह उसकी मृत्यु हो जाने के बाद प्रकाश नहीं देता अर्थात् उसका प्रकाशित होना, उसके चैतन्य का सूचक है, ठीक उसी तरह तेजोकाय (तेउकाय) जब सजीव होता है, तब ही प्रकाशित होता है । इसी तरह सजीव प्राणी या मनुष्य का शरीर ही उष्ण होता है, किन्तु मृत्यु के बाद वही ठण्डा पड़ जाता है, इसी भाँति अग्नि सजीव होने से उष्ण स्पर्श से युक्त है अर्थात् उष्ण स्पर्श उसके सजीवत्व का प्रमाण या द्योतक है; अतः अग्नि की रोशनी अर्थात् प्रकाश को सजीव मानना उपयुक्त नहीं है । 'दशवैकालिक' में दशपूर्वघर श्री शय्यंभवसूरिजी बताते हैं कि किसी भी साधु या साध्वी को अग्नि, अंगार, मुर्मर, अर्चिः, ज्वाला, शुद्ध अग्नि, बिजली, उल्का इत्यादि को जलाना नहीं चाहिये, ऐसी अग्नि में घी, ईंधन इत्यादि का उत्सिंचन न करना, ऐसी अग्नि का स्पर्श न करना, भिन्न-भिन्न प्रकाश की अग्नि का मिश्रण न करना, उसे पंखा इत्यादि से प्रज्वलित न करना अर्थात् वृद्धि न करना और किसी भी प्रकार की अग्नि को बुझाना भी नहीं, उपर्युक्त सभी क्रियाएँ दूसरों से नहीं कराना और जो भी ऐसी क्रियाएँ कर रहा हो, उसे अच्छा नहीं मानना; अर्थात् इन सभी क्रिया करने वालों को अग्नि की विराधना या हिंसा का पाप लगता है । यहाँ कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं है कि तेउकाय द्वारा उत्सर्जित प्रकाश मनुष्य (साधुसाध्वी) के शरीर पर पड़ने से तेउकाय की विराधना होती है । इसके अतिरिक्त यहाँ ऐसा निर्देश प्राप्त होता है कि अग्नि या दीपक (लैम्प) जलता हो तो, साधु या साध्वी उसे बुझाने का आदेश या प्रेरणा या उपदेश भी नहीं दे सकते, दीपक जलता हो तो साधु-साध्वी का निमित्त पा कर उसे बुझाना योग्य नहीं है । यदि दीपक द्वारा उत्सर्जित प्रकाश में आत्मा होती और उस प्रकाश के मनुष्य के शरीर पर पड़ने से मृत्यु होती, तो अहिंसा का संपूर्ण पालन करने के लिए ऐसी अग्नि को बुझाने की प्रेरणा देने या ऐसे स्थानों से दूर रहने का सुस्पष्ट विधान शास्त्रों में मिलता; किन्तु ऐसे विधान की अप्राप्ति इस बात का निर्देश करती हैं कि अग्नि, जिस में से प्रकाश और उष्णता पैदा होती है, सजीव है, उसे बुझाने का उपदेश देने या बुझाने से उसकी हिंसा होती हैं; किन्तु प्रकाश के सजीव न होने के कारण उसके साधु-साध्वी के शरीर पर पड़ने से हिसा नहीं होती हैं । यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि ऊपर जो बताया गया है, उसका (प्रकाश का) आगमिक साहित्य में कहीं भी तेउकाय में समावेश नहीं हुआ है अर्थात् वह सजीव नहीं है; फिर उसे सजीव मानने की परम्परा कब और कैसे शुरू हुई ? इस पर गहराई से विचार करना होगा । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छीय परम्परा के साधु और श्रावक के अतिचारों में और सेनप्रश्न में इस बात का सन्दर्भ प्राप्त होता है : प्रश्न : यदि चातुर्मास में प्रतिक्रमण आदि में बिजली का प्रकाश हो तो अतिचार लगेगा या
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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