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________________ Jainism : Through Science जम्बूद्वीप को भी सात क्षेत्रों में बाँटा गया है, जैसे - विदेह क्षेत्र, भरत क्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र आदि । भरत क्षेत्र के पुनः छह खण्ड हैं - एक आर्य खण्ड तथा पाँच मलेच्छ खण्ड । पृथ्वी थाली की तरह चपटी है। दो सूर्य तथा दो चंद्रमा पृथ्वी की निरन्तर प्रदक्षिणा करते हैं । लाखों देव सूर्य तथा चन्द्र विमानों को निरन्तर खींचकर (धक्का दे कर) चलाते रहते हैं । जैन भूगोल आज विज्ञान की कसौटी पर शत-प्रतिशत गलत साबित होता है । विज्ञान ने प्रयोग करके जिन तथ्यों को सामने रखा है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : पृथ्वी गेंद की तरह गोल है । पृथ्वी सूर्य की तथा चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं । पृथ्वी पर दिखने वाला मात्र एक सूर्य तथा एक चन्द्रमा है; लेकिन जैन इन तथ्यों को मानने को तैयार नहीं हैं । उपग्रह की सहायता से पृथ्वी के कई चित्र लिये जा चुके हैं, उनसे भी पृथ्वी का गोल होना सिद्ध होता है। आज विज्ञान के पास इतने साधन उपलब्ध हैं कि मनुष्य चन्द्रमा तक पहुंच चुका है; तब क्या जम्बूद्वीप में ही स्थित विदेह क्षेत्र आदि में नहीं पहुंचा जा सकता? ऐसा लगता है कि विदेह क्षेत्र आदि की जैन परिकल्पना यथार्थ-के-परे हैं । कुछ लोग यह मानने को भी तैयार नहीं है कि मनुष्य चन्द्रलोक पर पहुँचा है जबकि वैज्ञानिकों ने रॉकेट को चन्द्रलोक पर उतरते हुए टी.वी. के पर्दे पर साफ-साफ देखा है। __जैनधर्म में ऐसा मानना कि लाखों देव सूर्य-चन्द्र को खींच कर (धक्का दे कर) समान गति से चलाते रहते हैं, गलत लगता है । आखिर देवों को क्या पड़ी है कि वे इन्हें निरन्तर धक्का देते रहें या खींचते रहें ? यदि वे सूर्य और चन्द्र को खींचना बन्द कर दें तो क्या स्थिति होगी? सूर्यचन्द्र को खींचने की बात असंगत लगती है; हाँ, आलंकारिकता की बात और है । ध्यान रहे, काव्य और विज्ञान दो सर्वथा भिन्न क्षेत्र हैं। अवगाहना जैन पुराणों में विभिन्न महापुरुषों की अवगाहना बताने में अतिशयोक्ति अलंकार' का जितना प्रयोग किया गया है, शायद उतना किसी भी धर्म में नहीं हुआ है । बाद के कुछ तीर्थंकरों को छोड़ सभी तीर्थंकरों की लम्बाई-चौड़ाई इतनी अधिक बतायी गयी है कि वे सभी अलौकिक या काल्पनिक प्रतीत होते हैं । यदि हम पुराणों में वर्णित महापुरुषों की इस अवगाहना को सही मानें तथा यह भी सही मानें कि बीस तीर्थंकर सम्मेद शिखर से मोक्ष गये तब यह कैसे सम्भव है ? उन तीर्थंकरों के पैर तथा तलुवे इतने बड़े रहे होंगे कि पूरा शिखरजी पर्वत तो उनके पैरों तलें ही आ गया होगा । इतना ही नहीं, आज एक शहर में लाखों लोग रहते है लेकिन उस समय के लोगों की अवगाहना को सही माने तो एक शहर में अधिक-से-अधिक एक परिवार ही रह सका होगा; और फिर इमारतों के क्षेत्रफल और उनकी उँचाइयाँ क्या रही होंगी? जीवों के भेद . जैनधर्म में जीवों के पाँच प्रकार बताये गये हैं । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, तथा पाँच इन्द्रिय जीव । पंचेन्द्रिय जीवों को छोड़कर बाकी सभी जीव नपुंसक होते हैं तथा
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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