SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ आधाकर्मनिरूपणम् ॥ पवयण-लिंगादिदारेसु पुण पुव्वायरिया एवं भंगा परूवेंति, जहा- पवयणओ णाम एगे साहम्मिए णो लिंगओ साहम्मिओ – सावओ, तस्स कयं कप्पति (१)। लिंगओ णो पवयणओ – णिण्हओ, कप्पति (२)। पवयणतो वि लिंगओ वि-साधुरेव, ण कम्पति (३)। णो पवयणतो णो लिंगतो शून्योऽयं भङ्गः (४)। __पवयणओ णो दंसणतो, एगो खतिए एगो खतोवसमिते - जदि साहु ण चेव कप्पति, सावगस्स कयं कप्पति (१)। दसणतो णाम णो पवयणतो - तित्थगरो पत्तेयबुद्धो वा कप्पति (२)। एगे पवयणतो वि साहम्मिए दंसणतो वि – जदि साहु ण कम्पति, अह सावगो कप्पति (३)। चतुर्थः शून्यः (४)। पवयणतो णो णाणतो - एगो दुणाणी, एगो तिनाणी, एगो चउणाणी केवलणाणी वा, ण कप्पति (१)। एके णाणतो णो पवयणतो - तीर्थकरः, कप्पति (२)। दुहतो ण कप्पति (३)। शून्यः चतुर्थः (४)। पवयणतो णो चरित्ततो – सावओ, कप्पति (१)। चरित्ततो णो पवयणतो - तीर्थकरः, (कप्पति) (२)। दुहतो ण कम्पति (३)। शून्यः चतुर्थः (४)। पवयणतो णो अभिग्गहतो, कप्पति वा ण कप्पइ वा, श्रावकस्याऽपि अभिग्रहा भवन्ति, तस्य कल्पते (१)। अभिग्गहतो नो पवयणतो – णिण्हगादि, कप्पति (२)। दुहतो, ण कप्पति (३)। शून्यश्चतुर्थः (४)। भावना(याम)पि एवमेव। एवं लिंगओ णो दंसणतो – णिण्हओ, कप्पति (१)। दंसणतो णो लिंगतो - पत्तेयबुद्धे कप्पति (२)। दुहतो पि ण कप्पति (३)। लिंगतो णाम णो णाणतो – णिण्हओ, कप्पति (१)। णाणे णो लिंगे- सावय-पत्तेयादि, कप्पति (२)। दुहतो ण कप्पति (३)। लिंगे णो चरित्ते–णिण्हओ, कप्पति (१)। चरित्ते णो लिंगे- पत्तेय तित्थयरो वा, कप्पति (२)। दुहतो वि ण कम्पति (३)। लिंगे णो अभिग्गहे- जदि साधू ण कप्पति, गिहत्थे णिण्हए वि कम्पति (१)। अभिग्गहे णो लिंगतो-गिहत्थे कप्पति (२)। (दहुतो जदि णिण्हगा कप्पति, जदि साधू ण कप्पति (३))। एवं भावनायामपि। ___णाणे णो दसणे एगो खइए एगो खओवसमिए, ण कप्पति विभासा वा (१)। दंसणे णो णाणे(टि०) १. हम्मिओ जि१ ला०॥ २. ०ते वदृति जदि जि१॥ ३. ०स्थकरादि कप्प० जि० जि१॥ (विणट०).. मलय०मतेन तृतीयभने न केवलं साधुरवतरति अपि तु एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्ना श्रावका अपि अवतरन्ति. तस्मात् श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते॥.. वीरगणिमतेन मलय०मतेन च चतुर्थभने तिर्थकराः प्रत्येकबुद्धाश्च अवतरन्ति। पू.हरिभद्रसूरिमतेन चतुर्थभङ्गो शून्योऽस्ति, तत् केनाऽभिप्रायेण तन्न विद्मः। इत आरभ्य सर्वेषु चतुर्थभनेषु पू.हरिभद्रसूरिणा चतुर्थभङ्गः शून्यः प्रदर्शितः। वीरगणिना मलयगिरिसूरिणा च क्वचित् साधुः क्वचित् तीर्थकर-प्रत्येकबुद्धाः क्वचित् श्रावकादि विषयत्वेन प्रदर्शिताः। विशेषजिज्ञासुभिः तवृत्तितोऽवसेयः॥ *. अस्मिन् भने श्रावका अपि अवतरन्ति, तस्यार्थाय कृतं कल्पते, परंतु अत्र न विवक्षितम्॥ . आदिसहाओ पत्तेय-तित्थयरा इति ला० टि०॥ V. पत्तेयबुद्धे तित्थयरे य इति ला० टि०॥ ४. भगव्यत्ययोऽस्माकं आभाति॥
SR No.032703
Book TitlePind Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pindniryukti
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy