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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १६ परसमयवक्तव्यतायामकारकवादिमतखण्डनाधिकारः "कर्मगुणव्यपदेशाः प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत्तस्मात् । कार्यमसद्विज्ञेयं क्रियाप्रवृत्तेश्च कर्तृणाम् ||१||" तस्मात्सर्वपदार्थानां कथञ्चिन्नित्यत्वं कथञ्चिदनित्यत्वं सदसत्कार्यवादश्चेत्यवधार्य, तथा चाभिहितम्"सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योचित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् ||१||" इति, तथा “नान्वयः स हि भेदत्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तित्तः । मृद्धदद्वयसंसर्गवृत्तिर्जात्यन्तरं घटः ॥२॥" ||१६|| टीकार्थ - पृथिवी आदि पाँच महाभूत और छट्ठा आत्मा, बिना कारण विनाश अथवा कारण से विनाश, इन दोनों ही प्रकार के विनाशों से नष्ट नहीं होते हैं । बौद्ध लोग बिना कारण ही अपने आप पदार्थों का विनाश मानते हैं । जैसा कि वे कहते हैं, "जातिरेव हि" अर्थात पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है। जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट न हुआ, वह पीछे किस कारण से नष्ट हो सकता है । तथा वैशेषिक लोग लाठी आदि के प्रहार से पदार्थों का नाश मानते हैं, इसलिए इनके मत में नाश सहेतुक होता है । इन दोनों प्रकार के नाशों से आत्मा और लोक का नाश नहीं होता । यह आत्मषष्ठवादियों का आशय है । अथवा पृथिवी आदि पाँच महाभूत, अपने अचेतनस्वभाव से तथा आत्मा अपने चेतनस्वभाव से कभी नष्ट नहीं होता इसलिए ये कभी नष्ट नहीं होते हैं । पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश अपने स्वरूप को कभी नहीं छोड़ते इसलिए ये नित्य हैं, तथा यह जगत् कभी-भी अन्य तरह का नहीं होता है, इसलिए नित्य है । तथा आत्मा किसी का किया हुआ नहीं है, इत्यादि कारण से वह भी नित्य है। जैसा कि कहा है "नैनं छिन्दन्ति" अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग नहीं जला सकती, पानी नहीं भीगा सकता, वायु, शोषण नहीं कर सकता । यह आत्मा छिद नहीं सकता, यह भेदन नहीं किया जा सकता है । यह विकार रहित, नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल और सनातन कहा जाता है । पृथिवी आदि पाँच महाभूत तथा छट्ठा आत्मा नित्य हैं, इसलिए असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है, सभी पदार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं । जो पदार्थ असत् है, उसमें कर्ता, करण आदि कारकों का व्यापार नहीं हो सकता है। इसलिए सत् पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है, यह सिद्धान्त मानना चाहिए। यदि असत् पदार्थ की भी उत्पत्ति हो, तो खर विषाण (गधे के सींग) आदि की भी उत्पत्ति होनी चाहिए । अत एव कहा है कि "असदकरणात्" अर्थात् जो वस्तु नहीं होती, वह नहीं की जा सकती जैसे गधे के सींग नहीं किये जा सकते, इससे सिद्ध होता है कि जो वस्तु होती है, वही की जाती है । असत् वस्तु नहीं की जा सकती है । "उपादान-ग्रहणात्" कर्ता, किसी वस्तु को बनाने के लिए उसके उपादान को ही ग्रहण करता है। यदि असत् की भी उत्पत्ति हो तो उपादान के ग्रहण की क्या आवश्यकता है ? किसी भी वस्तु से कोई भी वस्तु की जानी चाहिए । इस प्रकार तेल निकालने के लिए तिल ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ? मिट्टी से भी तेल निकाल लेना चाहिए। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि उपादान में विद्यमान वस्तु की ही उत्पत्ति होती है। असत् की उत्पत्ति नहीं होती है। "सर्वसम्भवाभावात्" यदि असत् पदार्थ की भी उत्पत्ति हो तो वृक्ष की लकड़ी से पुतली ही क्यों बनाई जाती है । गेहूँ, चना, कपड़ा, घट आदि भी क्यों नहीं बना लिये जाते ? अतः कारण में दूसरे रूप से, स्थित पदार्थ ही किया जाता है, असत् पदार्थ नहीं किया जा सकता, यह सिद्ध है। "शक्तस्य शक्यकरणात्" मनुष्य की शक्ति से जो साध्य होता है, उसी को वह करता है। जो उसकी शक्ति से साध्य नहीं होता, उसे वह नहीं करता । यदि असत् की भी उत्पत्ति हो तो अशक्य पदार्थ को भी कर्ता क्यों नहीं कर देता ? अतः असत् की उत्पत्ति नहीं होती यह सिद्ध है । "कारण-भावाच्च सत्कार्यम्" पीपल के बीज से पीपल ही उत्पन्न होता है। आम का अङ्कुर उत्पन्न नहीं होता है। यदि कारण में न रहनेवाला भी कार्य्य उत्पन्न हो तो पीपल के बीज से आम का अङ्कुर क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता है? अतः सिद्ध होता है कि कारण में स्थित पदार्थ की ही उत्पत्ति होती ३२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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