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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १ श्रीसूत्रकृताने सटीक भाषानुवादसहिते किसी प्रथमाध्ययने स्वसमयवक्तव्यताधिकारः 1 बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो किंवा जाणं तिउट्टई ? स्वसमयवक्तव्यताधिकारः 118 11 छाया बुध्येतेति त्रोटयेद् बन्धनं परिज्ञाय । किमाह बन्धनं वीरः किं वा जानंस्त्रोटयति १ ॥ व्याकरण - ( बुज्झिज्जत्ति) क्रिया, विधिलिङ् । (तिउट्टिज्जा) क्रिया, विधिलिङ् । (बंधणं) कर्म । (परिजाणिया) पूर्वकालिक क्रिया । (किम्) बंधन का विशेषण । (बंधणं) कर्म (आह ) क्रिया । ( वीरो ) 'आह' क्रिया का कर्ता । (किम् ) प्रश्नार्थक कर्म विशेषण । ( जाणं) कर्ता का विशेषण । (वा) अव्यय । (तिउट्टई) क्रिया । - अन्वयार्थ - ( बुज्झिज्जत्ति) मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए। ( बंधणं परिजाणिया) बंधन को जानकर । ( तिउट्टिज्जा ) उसे तोड़ना चाहिए । (वीरो) वीर प्रभु ने । ( बंधणं किमाह) बंधन का स्वरूप क्या बताया है । (वा) और (किं जाणं) क्या जानता हुआ पुरुष, (तिउट्टई) बंधन को तोड़ता है? भावार्थ - मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए, तथा बन्धन का स्वरूप जानकर उसे तोड़ना चाहिए । वीर प्रभु ने बंधन का स्वरूप क्या बताया है? और क्या जानकर जीव बंधन को तोड़ता है ? टीका अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या - बुध्येतेत्यादि । सूत्रमिदं सूत्रकृताङ्गादौ वर्तते । अस्य चाचाराङ्गेन सहायं सम्बन्धः, तद्यथाऽऽचाराङ्गेऽभिहितम् - "जीवो छक्कायपरूवणा य तेसिं वहेण बंधो त्ति" इत्यादि, तत्सर्वं बुध्येतेत्यादि, यदिवेह केषाञ्चिद्वादिनां ज्ञानादेव मुक्त्यवाप्तिरन्येषां क्रियामात्रात्, जैनानां तूभाभ्यां निःश्रेयसाधिगम इत्येतदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते । तत्राऽपि ज्ञानपूर्विका क्रिया फलवती भवतीत्यादौ बुध्येतेत्यनेन ज्ञानमुक्तम् त्रोटयेदित्यनेन च क्रियोक्ता, तत्राऽयमर्थो - बुध्येत अवगच्छेद् बोधं विदध्यादित्युपदेशः, किं पुनस्तद् बुध्येतेति, आह- 'बंधणं' बध्यते जीवप्रदेशैरन्योऽन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनं ज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारं कर्म तद्धेतवो वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा न च बोधमात्रादभिलषितार्थावाप्तिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति- तच्च बन्धनं परिज्ञाय विशिष्टया क्रियया- संयमानुष्ठानरूपया त्रोटयेदपनयेदात्मनः पृथक् कुर्य्यात्परित्यजेद्वा, एवं चाभिहिते जम्बूस्वाम्यादिको विनेयो बन्धादिस्वरूपं विशिष्टं जिज्ञासुः पप्रच्छ 'किमाह' किमुक्तवान् बन्धनं वीरस्तीर्थकृत् किं वा जानन् अवगच्छंस्तद्बन्धनं त्रोटयति ततो वा त्रुटयतीति ? श्लोकार्थः ॥१॥ टीकार्थ इस सूत्र की संहिता' आदि क्रम से व्याख्या की जाती है । "बुध्येत" इत्यादि गाथा 'सूत्रकृताङ्ग' सूत्र के आदि में है । इस गाथा का आचाराङ्ग सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है आचाराङ्ग सूत्र में कहा है कि "जीव, छः कायवाले होते हैं, उन जीवों के घात से कर्मबन्ध होता है" यह सब जानना चाहिए, यह इस गाथा के द्वारा बताया जाता है । अथवा कोई वादी ज्ञानमात्र से मुक्ति बतलाते हैं और कोई क्रिया मात्र से मुक्ति लाभ कहते हैं, परंतु जैन लोग, ज्ञान और क्रिया दोनों से मुक्ति मानते हैं । यह इस श्लोक के द्वारा बताया जाता है। उस पर भी ज्ञान के साथ की हुई क्रिया ही मोक्ष - फल देती है, इसलिए पहले 'बुध्येत' इस पद के द्वारा ज्ञान बताया गया है और 'त्रोटयेत्' के द्वारा क्रिया कही गयी है । बोध प्राप्त करना चाहिए, यह उपदेश इस (बुध्येत ) का अर्थ 1. बुज्झिज्ज चू. । 2. किमाहु चू. । 3. एकान्त परोक्षे चू. । 4. संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ||१|| पदों का स्पष्ट उच्चारण करना संहिता है । श्लोक के पदों को अलग-अलग बताना 'पद' है । पदों के अर्थ को पदार्थ कहते हैं । पदों का विग्रह करना पदविग्रह है। शिष्य के प्रश्न को 'चालना' कहते हैं। शिष्य के प्रश्न का उत्तर देना 'प्रत्यवस्थान' कहलाता है । इस प्रकार शास्त्र की व्याख्या छः प्रकार की होती है । १
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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