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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना में उतना रखना चाहिए, जिससे पञ्चम पंक्ति में भी ७२० संख्या पूर्ण हो जाय । इस विधि को गणित की प्रक्रिया से ही अन्त्य कहते हैं। इसी तरह २४ में शेष चार का भाग लगाने पर छः लब्धि आती है इसलिए चतुर्थ पंक्ति चाहिए। उसके नीचे ६ त्रिक, फिर ६ द्विक और ६ एक स्थापन करके पूर्वोक्त रीति से पंक्ति को पूर्ण करना चाहिए। इसके पश्चात् ६ में शेष त्रिक का भाग लगाने पर दो लब्धि आती है इसलिए तृतीय पंक्ति में २ त्रिक लिखकर शेष पूर्ववत् लिखना चाहिए । शेष दो पंक्तिओं में शेष दो अंकों को क्रम और उत्क्रम से स्थापन करना चाहिए। नामोपक्रम में यह अध्ययन छः प्रकार के नामों में उतरता है क्योंकि नामोपक्रम में छः प्रकार के भावों की प्ररूपणा की गयी है और यह अध्ययन श्रुत होने के कारण क्षायोपशमिक भाव में विद्यमान है । अब प्रमाण बताया जाता है । जिससे पदार्थ का निश्चय किया जाता है, उसे 'प्रमाण' कहते हैं। वह प्रमाण द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव भेद से चार प्रकार का है। इनमें इस अध्ययन का क्षायोपशमिक भाव में विद्यमान होने के कारण भाव प्रमाण में अवतरण होता है । भाव प्रमाण भी गुण, नय और संख्या भेद से तीन प्रकार का होता है । इनमें भी इस अध्ययन का गुणप्रमाण में अवतार समझना चाहिए । गुणप्रमाण भी जीव और अजीव भेद से दो प्रकार का होता है । यह समयाध्ययन, क्षायोपशमिक भाव रूप है और क्षायोपशमिक भाव, जीव से भिन्न नहीं है, इसलिए इस अध्ययन का जीवगुण प्रमाण में अवतार समझना चाहिए । जीवगुण प्रमाण भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र भेद से तीन प्रकार का होता है । इनमें, यह अध्ययन ज्ञानरूप है, इसलिए ज्ञानगुण प्रमाण में इसका अवतार समझना चाहिए । ज्ञानगुण प्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम भेद से चार प्रकार का है । उनमें आगम प्रमाण में इसका अवतार समझना चाहिए । आगम भी लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार का होता है । उनमें इस अध्ययन का लोकोत्तर आगम में समावेश समझना चाहिए । लोकोत्तर आगम भी सूत्र, अर्थ और उभयरूप से तीन प्रकार का होता है । यह अध्ययन, त्रिरूप है, इसलिए तीनों में इसका अवतार समझना चाहिए । अथवा आत्मागम, अनंतरागम और परंपरागम भेद से आगम तीन प्रकार का होता है। इनमें तीर्थकर के लिए अर्थ की अपेक्षा से यह आगम आत्मागम है और गणधरों के लिए अनंतरागम है और गणधरों के शिष्यों के लिए परम्परागम है। सूत्र की अपेक्षा से यह आगम, गणधरों के लिए आत्मागम है और गणधर के शिष्यों के लिए अनन्तरागम है तथा दूसरे लोगों के लिए परम्परागम है । गुणप्रमाण कहने के पश्चात् अब नयप्रमाण कहने का अवसर है। परंतु इस काल में नयप्रमाण की अलग-अलग व्याख्या करने का प्रसंग नहीं है अथवा पुरुष की अपेक्षा से हो भी सकता है । जैसा कि कहा है- (मूढनइयं) अर्थात् कालिक सूत्र, इस काल में नयशून्य माने जाते हैं, अतः उनमें नयों का समवतार नहीं होता है, यदि हो तो सूत्रों में अभेद रूप से ही होता है परंतु अलगअलग नहीं होता । ___ (आसज्जउ) तथा नय के जानने में निपुण पुरुष, श्रोता को पाकर नयों का वर्णन करे । 'नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, परिमाण, "पर्याव और ‘भाव भेद से सङ्ख्याप्रमाण आठ प्रकार का होता है अध्ययन का परिमाण-सङ्ख्या में अवतार समझना चाहिए । परिमाणसङ्ख्या भी कालिक और दृष्टिवाद भेद से दो प्रकार की होती है। इनमें इस अध्ययन का कालिक परिमाणसङ्ख्या में समवतार समझना चाहिए । उसमें अङ्ग और अनङ्ग के मध्य में अङ्गप्रविष्ट में इसका समवतार समझना चाहिए । पर्य्यवसङ्ख्या में अनन्त पर्यव हैं तथा सङ्ख्यात अक्षर हैं, सङ्ख्यात सङ्घात हैं, संख्यात पद हैं, संख्यात श्लोक हैं, सङ्ख्यात गाथायें हैं, संख्यात वेढ (एक अर्थ को बताने-वाली वाक्य योजनायें) हैं, एवं सङ्ख्यात अनुयोगद्वार हैं । अब वक्तव्यता का समवतार के विषय में विचार किया जाता है । स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और उभयसमयवक्तव्यता भेद से वक्तव्यता तीन प्रकार की होती है । इनमें यह अध्ययन तीनों वक्तव्यताओं में उतरता है । अध्ययनार्थाधिकार और उद्देशार्थाधिकार भेद से अर्थाधिकार दो प्रकार का है । इनमें नियुक्तिकार ने अध्ययनार्थाधिकार कह दिया है और उद्देशार्थाधिकार भी गाथा द्वारा आगे चलकर बतायेंगे । अब निक्षेप का अवसर है । निक्षेप तीन प्रकार का होता है । ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न । ओघनिष्पन्न में यह अध्ययन है। उसका निक्षेप आवश्यक आदि सूत्रों में प्रधानरूप से कहा ही है ॥ २४ से २८॥नि०॥
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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