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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा ११-१२ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् तच्छाकपाकार्थमानय, तथा 'आमलकानि' धात्रीफलानि स्नानार्थं पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थं वा तथोदकमाह्रियते येन तदुदकाहरणं-कुटवर्धनिकादि, अस्य चोपलक्षणार्थत्वाद् घृततैलाद्याहरणं सर्वं वा गृहोपस्करं ढौकयस्वेति, तिलकः क्रियते यया सा तिलककरणी - दन्तमयी सुवर्णात्मिका वा शलाका यया गोरोचनादियुक्तया तिलकः क्रियत इति, यदिवा गोरोचनया तिलकः क्रियते (इति) सैव तिलककरणीत्युच्यते, तिलका वा क्रियन्ते - पिष्यन्ते वा यत्र सा तिलककरणीत्युच्यते, तथा अञ्जनं - सौवीरकादि शलाका-अक्ष्णोरञ्जनार्थं शलाका अञ्जनशलाका तामाहरेति । तथा 'ग्रीष्मे' उष्णाभितापे सति 'मे' मम विधुनकं' व्यजनकं विजानीहि ॥ १०॥ एवं टीकार्थ जिसमें सुख पूर्वक तक्र आदि पदार्थ पकाये जाते हैं, उसे सुफणी कहते हैं, वटलोई और तपेली आदि भाजनों को सुफणि कहते हैं । वह भाजन शाक पकाने के लिए लाओ । एवं स्नान करने के लिए तथा पित्त की शान्ति के निमित्त, खाने के लिए आँवला लाओ। पानी रखने के लिए बर्तन लाओ । यह उपलक्षण रूप से कहा गया है । इसलिए घी और तेल रखने के लिए पात्र तथा सभी घर के उपकरण लाओ। जिससे तिलक किया जाता है, उसे तिलककरणी कहते हैं। दाँत की बनी हुई या सोने की बनी हुई सलाई होती है, जिससे गोरोचन आदि लगाकर तिलक किया जाता है अथवा गोरोचना को 'तिलक करणी' कहते हैं, अथवा जिसमें तिलक पीसा जाता है, उसे तिलककरणी कहते हैं, तथा आँख में अञ्जन लगाने के लिए जो सलाई होती है, उसे अञ्जनशलाका कहते हैं, इन सब चीजों को लाओ । तथा गर्मी के ताप की शान्ति के लिए मुझको पंखा लाकर दो ॥१०॥ - संडासगं च फणिहं च, सीहलिपासगं च आणाहि । आदंसगं च पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पवेसाहि ।।११।। छाया - संडासिकं च फणिहं च, सीहलिपाशकं चानय । आदर्शकं च प्रयच्छ दन्तप्रक्षालनकं प्रवेशय ॥ अन्वयार्थ - ( संडासगं च) नाक के केशों को उखाडने के लिए चिपीया लाओ । ( फणिहं च) तथा केश संवारने के लिए कंघी लाओ ( सीहलिपासगं च ) चोटी बांधनें के लिए ऊनकी बनी हुई ( आंटी ) ( आणाहि ) लाकर दो । ( आदंसगं च पयच्छाहि दंतपक्खालणं पवेसाहि) मुख देखने के लिए दर्पण, दाँत साफ करने के लिए दन्तमञ्जन लाओ । भावार्थ - स्त्री कहती है कि- हे प्रियतम ! नाक के केशों को उखाडने के लिए चिपीया लाओ, केश सँवारने के लिए कँधी और चोटी बाँधने के लिए ऊनकी बनी आँटी, मुख देखने के लिए दर्पण तथा दाँत साफ करने के लिए दन्तमंजन लाओ । टीका - 'संडासगं' नासिकाकेशोत्पाटनं 'फणिहं' केशसंयमनार्थं कङ्कतकं, तथा 'सीहलिपासगं 'ति वेणीसंयमनार्थमूर्णामयं कङ्कणं च 'आनय' ढौकयेति, एवम् आ - समन्तादृश्यते आत्मा यस्मिन् स आदर्शः स एव आदर्शकस्तं 'प्रयच्छ' ददस्वेति, तथा दन्ताः प्रक्षाल्यन्ते - अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं दन्तकाष्ठं तन्मदन्तिके प्रवेशयेति ॥ ११॥ टीकार्थ - जिससे नाक के केश उखाड़े जाते हैं, उसे संडासक कहते हैं तथा जिससे केश सँवारे जाते हैं, उसे फणिह कहते हैं । फणिह नाम कँघी का है तथा चोटी बाँधने के लिए उनके बने हुए कङ्कण को सीहलिपाशक कहते ये सब लाकर मुझको दो । जिसमें चारो तर्फ से अपना शरीर देखा जाता है, उसे आदर्श कहते हैं, आदर्श को ही आदर्शक कहते हैं, आदर्शक नाम दर्पण का है । वह मुझको लाकर दीजिए। जिसके द्वारा दाँत के मल दूर किये जाते हैं, उसे दन्तप्रच्छालनक कहते हैं, वह दातुन अथवा दाँत का मंजन है, वह मेरे पास लाओ ॥ ११॥ पूयफलं तंबोलयं, सूईसुत्तगं च जाणाहि । कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च ।।१२।। छाया - पूगीफलं ताम्बूलं, सूचिसूत्रं च जानीहि । कोशं च मोचमेहाय, शूपौचखलं च क्षारगालनकम् ॥ २८३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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