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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ४ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् टीकार्थ - जिसको केश होते हैं उसे केशिका कहते हैं, 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। स्त्री कहती है कि हे साधो ! यदि मुझ केशवाली स्त्री के साथ तूं विहार नहीं कर सकता, अर्थात् मुझ केशवाली स्त्री के साथ भोग करने में तूं यदि लज्जित होता है तो मैं तुम्हारे सङ्ग की इच्छा से अपने केशों का लोच कर दूंगी फिर दूसरे भूषणों की तो बात ही क्या है ? यह अपि शब्द का अर्थ है । यह केशों का लोच उपलक्षण मात्र है इसलिए और भी दूसरा विदेश गमन आदि जो दुष्कर कर्म है, वह सब मैं सहन करुंगी परन्तु तुम मेरे बिना अन्यत्र कहीं मत जाओ। आशय यह है कि मेरे बिना तुम क्षणभर भी न रहो यही मैं आप से प्रार्थना करती हूं आप जो कुछ मुझ को आज्ञा देंगे वह सब मैं करुंगी ॥३॥ - इत्येवमतिपेशलैर्विश्रम्भजननैरापातभद्रकैरालापैर्विश्रम्भयित्वा यत्कुर्वन्ति तद्दर्शयितुमाह - - पूर्वगाथाओं के कहे अनुसार अतिमनोहर विश्वासजनक थोड़ी देर के लिए सुन्दर वचनों से साधु को विश्वास उत्पन्न कराके स्त्रियाँ जो करती हैं, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । अह णं से होई उवलद्धो. तो पेसंति तहाभएहिं। अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाई आहराहि त्ति ॥४॥ छाया - अथ स भवत्युपलब्धस्ततः प्रेषयन्ति तथाभूतेः । अलावूच्छेदं प्रेक्षस्व वल्गुफलाब्याहर इति ॥ अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् (से उवलद्धो होई) यह साधु मेरे वश में हो गया है, यह जब स्त्री जान लेती है (तो पेसंती तहाभूएहिं) तो वह उस साधु को दास के समान अपने कार्य में प्रेरित करती है । (अलाउच्छेदं पेहेहि) वह कहती है कि तुम्बा काटने के लिए छुरी ले आओ । (वग्गुफलाई आहराहित्ति) तथा मेरे लिए अच्छे फल लाओ । भावार्थ - साधु की चेष्टा और आकार आदि के द्वारा जब स्त्री यह जान लेती है कि यह मेरे वश में हो गया है तो वह अपने नोकर के समान कार्य करने के लिए उसे प्रेरित करती है। वह कहती है कि तुम्बा काटने के लिए छुरी लाओ तथा मेरे लिए उत्तमोत्तम फल लाओ । ___टीका - 'अथे' त्यानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, विश्रम्भालापानन्तरं यदाऽसौ साधुर्मदनुरक्त इत्येवम् 'उपलब्धो' भवति - आकारैरिङ्गितैश्चेष्टया वा मद्वशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः कपटनाटकनायिकाभिः स्त्रीभिः, ततः तदभिप्रायपरिज्ञानादुत्तरकालं 'तथाभूतैः' कर्मकरव्यापारैरपशदै:1 'प्रेषयन्ति' नियोजयन्ति यदिवा - तथाभूतैरिति लिङ्गस्थयोग्यैर्व्यापारैः प्रेषयन्ति, तानेव दर्शयितुमाह - 'अलाउ' त्ति अलाबु - तुम्बं छिद्यते येन तदलाबुच्छेदं - पिप्पलकादि शस्त्रं 'पेहाहि' त्ति प्रेक्षस्व निरूपय लभस्वेति, येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुखादि क्रियत इति, तथा 'वल्गूनि' शोभनानि 'फलानि' नालिकेरादीनि अलाबुकानि वा त्वम् 'आहर' आनयेति, यदिवा - वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वा वाचो यानि फलानि - वस्त्रादिलाभरूपाणि तान्याहरेति ॥४|| अपिच टीकार्थ - अथ शब्द आनन्तर्य अर्थ में आया है 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में है। विश्वासजनक आलाप के पश्चात् जब स्त्रियाँ साधु के आकार इङ्गित और चेष्टाओं से यह जान लेती हैं कि यह साधु मेरे में अनुरक्त है, तब कपट नाटक खेलने में अति निपुण स्त्रियाँ नोकर के समान छोटे से छोटे कार्य में साधु को नियुक्त करती हैं । अथवा साधु के लिङ्ग में वेष में रहनेवाले पुरुष के योग्य कार्य में नियुक्त करती हैं । उन्हीं कार्यो को दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- जिससे तुम्बा काटा जाता है, उसे अलाबुच्छेद कहते हैं, वह छुरी आदि शस्त्र हैं, स्त्री कहती है कि- हे साधो ! छुरी आदि शस्त्र ले आओ जिससे पात्र का मुख आदि बनाया जाय, तथा नारियल आदि अथवा तुम्बा आदि फल लाओ । अथवा धर्म कथा रूप वाणी अथवा व्याकरण आदि का व्याख्यान रूप वाणी का फल जो वस्त्रादि लाभ हैं, उन्हें लाओ।।४|| 1. शब्दैः प्र. खेरं पापमपशदमिति हैमः २७९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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