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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना जाता है । यही गाथा के उत्तरार्ध द्वारा बताया जाता है । गणधरों ने अक्षरगुणमति-संघटना और कर्मपरिशाटना इन दोनों के योग से अथवा वाग्योग और मनोयोग से इस सूत्र को रचा है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है ॥२०॥नि०॥ इहानन्तरं सूत्रकृतस्य निरुक्तमुक्तम्, अधुना सूत्रपदस्य निरुक्ताभिधित्सयाऽऽहसुत्तेण सुत्तिया चिय अत्था तह 'सूइया य जुत्ताय । तो बहुविहप्पउत्ता एय पसिद्धा अणादीया ॥२१॥ नि० अर्थस्य सूचनात्सूत्रं तेन सूत्रेण केचिदर्थाः साक्षात्सूत्रिता मुख्यतयोपात्ताः, तथाऽपरे सूचिता अर्थापत्त्याक्षिप्ताः, साक्षादनुपादानेऽपि दध्यानयनचोदनया तदाधारानयनचोदनावदिति, एवं च कृत्वा चतुर्दशपूर्वविदः परस्परं षट्स्थानपतिता भवन्ति, तथा चोक्म्"4अक्खरलंभेण समा ऊणहिया हुँति मतिविसेसेहिं । तेऽवि य मईविसेसा सुयणाणउभंतरे जाण" ॥॥ तत्र ये साक्षादुपात्तास्तान् प्रति सर्वेऽपि तुल्याः, ये पुनः सूचितास्तदपेक्षया कश्चिदनन्तभागाधिकमर्थं वेत्त्यपरोऽसंख्येयभागाधिकमन्यः संख्येयभागाधिकं तथाऽन्यः संख्येयासंख्येयानन्तगुणमिति, ते च सर्वेऽपि 'युक्ता' युक्त्युपपन्नाः सूत्रोपात्ता एव, वेदितव्याः, तथा चाभिहितम्- "तेऽवि य मईविसेसे'' इत्यादि । ननु किं सूत्रोपात्तेभ्योऽन्येऽपि केचनार्थाः सन्ति ? येन तदपेक्षया चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानपतितत्वमुख़ुष्यते, बाढं विद्यन्ते, यतोऽभिहितम्“पण्णवणिज्जा भाया अणंतभागो उ अणमिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो' ॥१॥ यतश्चैवं ततस्तेऽर्था आगमे बहुविधं प्रयुक्ताः सूत्रैरुपात्ताः केचन साक्षात्, केचिदर्थापत्त्या समुपलभ्यन्ते । यदिवा क्वचिद्देशग्रहणं क्वचित्सर्वार्थोपादानमित्यादि, यैश्च पदैस्तेऽर्थाः प्रतिपाद्यन्ते तानि पदानि प्रकर्षेण सिद्धानि प्रसिद्धानि न साधनीयानि,तथाऽनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि, तथा चेयं द्वादशाङ्गी शब्दार्थरचनाद्वारेण विदेहेषु नित्या भरतैरावतेष्वपि शब्दरचनाद्वारेणैव प्रति तीर्थकरं क्रियते, अन्यथा तु नित्यैव । एतेन च "उच्चरितप्रध्वंसिनो वर्णा' इत्येतन्निराकृतं वेदितव्यमिति ॥२१॥नि०।। इसके पूर्व सूत्रकृत शब्द की व्याख्या की गयी है । अब नियुक्तिकार सूत्र पद की व्याख्या करने के लिए कहते हैं । जो अर्थ को सूचित करता है, उसे 'सूत्र' कहते हैं । उस सूत्र के द्वारा कोई अर्थ साक्षात् कहे हुए होते हैं. वे मख्यरूप से गृहीत होते हैं और दूसरे अर्थ सूचित किये हुए अर्थात् अर्थापत्ति न्याय से आक्षेप किये हुए होते हैं । वे अर्थ साक्षात् ग्रहण न करने पर भी दही लाने की आज्ञा देने पर उसके बर्तन को लाने की आज्ञा के समान अर्थवश जान लिये जाते हैं । यही कारण है कि चौदह पूर्वधारी छः प्रकार के होते हैं । कहा भी है "अक्खरलंभेण" अर्थात् सभी चौदह पूर्वधारी सूत्राक्षरों के ज्ञान में समान होते हैं परंतु उनके अर्थज्ञान में भेद होता है । उनका अर्थज्ञान श्रुतज्ञान के अभ्यंतर ही जानना चाहिए बाहर नहीं । जो अर्थ सूत्रों में साक्षात् गृहीत है, उनके विषय में सभी पूर्वधारी समान हैं परंतु जिन अर्थों की सूचना की गयी है, उनके विषय में कोई अनंत भाग अधिक अर्थ जानते हैं, कोई असंख्येय भाग अधिक जानते हैं, कोई संख्येय भाग अधिक जानते हैं तथा कोई संख्येय, असंख्येय और अनंत गुण अधिक जानते हैं । सूचना किये हुए वे सभी अर्थ भी युक्ति संगत तथा सूत्र द्वारा गृहीत ही हैं, यह जानना चाहिए। अत एव कहा है कि वे अर्थज्ञान, श्रुतज्ञान के अन्दर ही हैं, बाहर नहीं हैं। (शंका) क्या सूत्रों में ग्रहण किये हुए अर्थों से भिन्न भी कोई अर्थ हैं, जिनकी अपेक्षा से चौदह पूर्वधारियों के छः भेद होने की घोषणा करते हो? (समाधान) हाँ, अवश्य हैं अत एव कहा है कि "पण्णवणिज्जा" इत्यादि । अर्थात् कथन करने योग्य अर्थ, 1. प्रोताः । 2. युज्यमानाः । 3. चउविहेणजाइबंधेण पंचावयवविशेषेण वा चू. 1 4. अक्षरलाभेन समा ऊनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः । तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि ।।१।। 5. प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभाग एवानभिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ।।१।। 24
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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