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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २२-२३ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् अदु कण्णणासच्छेदं, कंठच्छेदणं तितिक्खंती। इति इत्थ पावसंतत्ता, न य बिंति पुणो न काहिंति |॥२२॥ छाया - अथ कर्णनासिकाच्छेदं कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्तो । इत्यत्र पापसन्तप्ताः, न च युवते न पुनः करिष्यामः ।। अन्वयार्थ - (पावसंतत्ता) पापी पुरुष (इत्थ) इस लोक में (कण्णणासच्छेद) कान और नाक का छेदन एवं (कंठच्छेदणं तितिक्खंति) कण्ठ का छेदन सह लेते हैं (न य बिति) परन्तु यह नहीं कहते हैं कि (न पुणो काहिति) अब हम फिर पाप नहीं करेंगे। भावार्थ - पापी पुरुष अपने पाप के बदले कान, नाक और कण्ठ का छेदन सहन करते हैं परन्तु यह निश्चय नहीं कर लेते कि हम अब पाप नहीं करेंगे । टीका - अथ कर्णनासिकाच्छेदं तथा कण्ठच्छेदनं च 'तितिक्षन्ते' स्वकृतदोषात्सहन्ते इति, एवं बहुविधां विडम्बनाम् 'अस्मिन्नेव' मानुषे च जन्मनि पापेन - पापकर्मणा सन्तप्ता नरकातिरिक्तां वेदनामनुभवन्तीति, न च पुनरेतदेवम्भूतमनुष्ठानं न करिष्याम इति ब्रुवत इत्यवधारयन्तीति यावत्, तदेवमैहिकामुष्मिका दुःखविडम्बना अप्यङ्गीकुर्वन्ति न पुनस्तदकरणतया निवृत्तिं प्रतिपद्यन्त इति भावः ॥२२॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - पापी पुरुष अपने किये हुए पाप के दोष से कान और नाक का छेदन तथा कंठ का छेदन सहन करते हैं । इस प्रकार पापी पुरुष अपने पाप कर्म से सन्तप्त होकर नरक के सिवाय अनेक प्रकार का कष्ट इसी लोक में भोगते हैं परन्तु अब हम ऐसा अनुष्ठान नहीं करेंगे ऐसा मन में दृढ़ संकल्प नहीं करते हैं । इस प्रकार पापी पुरुष इस लोक तथा परलोक में दुःख स्वीकार करते हैं परंतु पाप कर्म करने से निवत्त नहीं होते हैं ॥२२॥ सुतमेतमेवमेगेसिं, इत्थीवेदेति हु सुयक्खायं । एवंपि ता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥२३॥ छाया - श्रुतमेतमेवमेकेषां, स्त्रीवेद इति स्वाख्यातम् । एवमपि ता उक्त्वा अथवा कर्मणा अपकुर्वन्ति ॥ अन्वयार्थ - (एतं एवं सुतं) स्त्री का सम्पर्क बुरा होता है यह हमने सुना है। (एगेसिं सुयक्खायं) कोई ऐसा कहते भी है। (इत्थीवेदेति हु) वैशिक कामशास्त्र का यह कहना भी है कि (ता एवं वदित्ताणं कम्मुणा अवकरेंति) स्त्रियां अब मैं ऐसा न करूंगी यह कह कर भी अपकार करती हैं। भावार्थ - स्त्रियों का सम्पर्क बुरा है, यह हमने सुना है, तथा कोई ऐसा कहते भी हैं एवं वैशिक कामशास्त्र का यही कहना है, अब मैं इस प्रकार न करूंगी, यह कहकर भी स्त्रियां अपकार करती हैं। टीका - 'श्रुतम्' उपलब्धं गुर्वादेः सकाशाल्लोकतो वा 'एतद्' इति यत्पूर्वमाख्यातं, तद्यथा - दुर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः स्त्रीसम्बन्धविपाकः तथा चलस्वभावाः स्त्रियो दुष्परिचारा अदीर्घप्रेक्षिण्यः प्रकृत्या लघ्व्यो 'इति' एवमेकेषां स्वाख्यातं भवति, लोकश्रुतिपरम्परया चिरन्तनाख्यायिकासु वा परिज्ञातं भवति, स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्सम्बन्धविपाकतश्च वेदयति-ज्ञापयतीति स्त्रीवेदो - वैशिकादिकं, स्त्रीस्वभावाविर्भावकं शास्त्रमिति, तदुक्तम् दुर्ग्राह्यं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः 'पर्वतमार्गदुर्गविषमः छीणां न विज्ञायते चित्तं पुष्करपत्रतीयतरलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नार्या नाम विषाङ्करैरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ||१|| अपि च सुदठुवि जियासु सुठु वि पियासु सुठुवि य लद्धपसरासु । 1. सूक्ष्ममार्ग वि० । 2. सुष्ठु विजितासु सुष्ठ्वपि प्रीतासु सुष्ठ्वपि च लब्धप्रसरासु, अटवीषु महिलासु च विशम्भो नैव कार्यः ।।१।। २६९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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