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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः प्रस्तावना स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् णिण्णेहनियाणं अलियवयणजपणरयाणं ॥७॥ 'मारेइ जियंतंपिहु मयंपि अणुमरइ काइ भत्तारं । विसहरगइव्व चरियं वंकविवंकं महेलाणं ||४|| गंगाए वालुया सागरे जलं हिमवओ य परिमाणं । जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं ण जाणंति ॥९॥ रोवावंति रुवंति य अलियं जंपंति पत्तियावंति । कवडेण य खंति विसं मरंति ण य जंति सब्भावं ||१०|| 4चिंतिंति कज्जमण्णं अण्णं संठवइ भासई अण्णं । आढवइ कुणइ अण्णं माइवग्गो णियडिसारो ||११|| 5असयारंभाण तहा सव्वेसिं लोगगरहणिज्जाणं । परलोगवेरियाणं कारणयं चेव इत्थीओ ||१२|| अहवा को जुवईणं जाणइ चरियं सहावाडिलाणं । दोसाण आगरो च्चिय जाण सरीरे वसइ कामो ||१३।। 'मूलं दुच्चरियाणं हवइ उ णरयस्स वत्तीण विउला । मोक्खस्स महाविग्घं वज्जेयव्वा सया नारी ॥१४॥ Bधण्णा ते वरपुरिसा जे च्चिय मोचूण णिययजुवईओ । पव्वइया कयनियमा सिवमयलमणतरं पत्ता ||१५|| टीकार्थ - शत्रुसैन्य को विजय करने आदि में खूब समर्थ पुरुषों को भी स्त्रियों ने अपने नेत्र के पलक मात्र से वशीभूत तथा असमर्थ, डरपोक बना दिया है। तथा वे पुरुष अल्प पराक्रमी बनकर स्त्रियों के पैरोपर पड़ना आदि खुशामद करते हुए सार रहित बना दिये जाते हैं । यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि- अपने को शूर माननेवाले पुरुष भी स्री के वश में होकर दीन हो चुके हैं, वस्तुतः वे पुरुष ऐसे शूर नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ कि स्त्रियों का विश्वास नही करना चाहिए। कहा भी है - (को वीससेज) कपट से भरी हुई और दुःख से समझाने योग्य तथा क्षण मात्र में राग करनेवाली और क्षण में ही विरक्त होनेवाली स्त्रियों पर कौन विश्वास कर सकता है? पूर्वोक्त दुर्गुणों से भरे हुए स्त्री के हृदय को धिक्कार है ॥१॥ स्त्रियां सामने दूसरा कहती हैं और दूसरे के पास बैठती हैं । हृदय में दूसरा ही होता है तथा जो मन में धारती हैं, वह करती हैं ॥२॥ ऐसा कौन पुरुष विद्वान है, जो वेत्रलता की गुच्छा से भी गाढ़ हृदयवाली स्त्रियों के भाव को जाने? ॥३॥ अनुरक्त होने पर स्त्री ईक्षु की तरह तथा शक्कर की तरह मधुर प्रतीत होती है परन्तु विरक्त होने पर वह निम्ब के अङ्कुर से भी अधिक कटु हो जाती है ॥४॥ स्त्री, मनुष्य को देती है, उसका कार्य करती है, तथा वह मनुष्य को मार भी डालती है । वह मनुष्य को स्थान पर स्थापित करती है तथा प्रसन्न होकर उसे जीलाती है अथवा ठगती है ॥५॥ स्त्रियां पुण्य की रक्षा नहीं करती हैं, स्नेह नहीं करती हैं तथा दान सम्मान की रक्षा नहीं करती हैं । वे कुल, पूर्व की कीर्ति, भविष्य की उन्नति तथा शील का नाश कर देती हैं ॥६॥ कपट से भरे हुए, स्नेह तथा दया से रहित झूठ बोलने में तत्पर ऐसी स्त्रियों के हृदय का विश्वास कभी न करो ॥७॥ 1. मारयति जीवन्तमप्येव मृतमप्यनुम्रियते काचिद्वर्तारं । विषधरगतिरिव चरितं वक्रविवक्रं महेलानां ॥५॥ 2. गङ्गायां वालुकाः सागरे जलं हिमवतच परिमाणं । जानन्ति बुद्धिमन्तो महिलाहृदयं न जानन्ति || 3. रोदयन्ति रुदन्ति च अलीकं जल्पन्ति प्रत्याययन्ति । कपटेन खादति विष म्रियते न च यान्ति सद्भावम् ।।१०।। 4. चिन्तयति कार्यमन्यदन्यत् संस्थापयति भाषतेऽन्यत् । आरभते करोत्यन्यन्मायिवर्गो निकृतिसारः ॥११॥ 5. असदारम्भाणां तथा सर्वेषां लोकगर्हणीयाणां । परलोकवैरिकाणां कारणं चैव स्त्रियः ॥१२॥ 6. अथवा को युवतीनां जानाति चरित स्वभावकुटिलानां । दोषाणामाकरथैव यासां शरीरे वसति कामः ।।१३।। 7. मूलं दुश्चरितानां भवति तु नरकस्य वर्तनी विपुला । मोक्षस्य महाविघ्नं वर्जयितव्या सदा नारी ।।१४।। 8. धन्यास्ते वरपुरुषा ये चैव मुक्त्वा निजकयुवतीः । प्रव्रजिताः कृतनियमाः शिवमचलमनुत्तरं प्राप्ताः ॥१५॥
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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