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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा १४ उपसर्गाधिकारः को ग्रहण करनेवाली नहीं है । जो त्याग करने योग्य समस्त धर्मों से दूर रहता है, उसे आर्य कहते हैं। पूर्वोक्त मतवादी आर्य नहीं किन्तु अनार्य हैं क्योंकि वे विरुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं । इस प्रकार के सिद्धान्त को मानने वाले पुरुष इच्छा-मदनरूप काम भोग में अत्यन्त आसक्त है । अथवा वे काम के द्वारा सावधानुष्ठान में अत्यन्त आसक्त है । इस विषय में शास्त्रकार लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त बतलाते हैं - जैसे पूतना डाकिनी स्तनपीनेवाले बालकों पर आसक्त रहती है, इसी तरह वे अनार्य काम में आसक्त रहते हैं । अथवा पूतना भेड़ का नाम है, वह जैसे अपने बच्चों पर आसक्त रहती है, इसी तरह वे अनार्य कामभोग में आसक्त हैं । भेड़ अपने बच्चों पर अत्यन्त आसक्त रहती है, इस विषय में एक कहानी प्रसिद्ध है - किसी समय पशुओं के अपत्यस्नेह की परीक्षा करने के लिए सर्व पशुओं के बच्चे जल रहित किसी कूप में रख दिये गये । उस समय उन बच्चों की मातायें अपनेअपने बच्चों के शब्द सुनकर कूप के तट पर ही रोती हुई खड़ी रही परन्तु भेड़ अपने बच्चों के प्रेम में अंधी होकर मृत्यु की परवाह न करके उस कूप में कूद पड़ी, इससे जैसे समस्त पशुओं में भेड़ का अपने बच्चे में अधिक स्नेह सिद्ध हुआ, इसी तरह उन अन्यतीर्थियों का कामभोग में अधिक स्नेह सिद्ध होता है ॥१३॥ कामाभिष्वङ्गिणां दोषमाविष्कुर्वन्नाह - काम में आसक्त रहनेवाले पुरुषों का दोष बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । अणागयमपस्संता, पच्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोव्वणे ॥१४॥ छाया - अनागतमपश्यन्तः प्रत्युत्पन्नागवेषकाः । ते पश्चात् परितष्यन्त, क्षीणे आयुषि योवने ॥ अन्वयार्थ - (अणागयमपस्संता) भविष्य में होने वाले दुःख को न देखते हुए (पच्चुप्पन्नगवेसगा) जो लोग वर्तमान सुख की खोज में लगे रहते हैं (ते) वे (पच्छा) पीछे (आउंमि जोव्वणे खीणे) आयु और युवावस्था के नष्ट होने पर (परितप्पति) पश्चात्ताप करते हैं। भावार्थ - असत् कर्म के अनुष्ठान से भविष्य में होनेवाली यातनाओं को न देखते हुए जो लोग वर्तमान सुख की खोज में रत रहते हैं, वे युवावस्था और आयु क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं । टीका - 'अनागतम्' एष्यत्कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महत् दुःखम् 'अपश्यन्तः' अपर्यालोचयन्तः, तथा 'प्रत्युत्पन्नं' वर्तमानमेव वैषयिकं सुखाभासम् 'अन्वेषयन्तो' मृगयमाणा, नानाविधैरुपायैर्भोगान्प्रार्थयन्तः ते पश्चात् क्षीणे स्वायुषि जातसंवेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति, उक्तं च - हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कण्डनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थ नादरः कृतः ।।१।। तथा - विहवावलेवनडिएहिं जाई कीरन्ति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हिअए खुडुळंति ।।१।। ॥१४॥ टीकार्थ - जो पुरुष कामभोग से निवृत्त नहीं है, उनको नरक आदि स्थानों में जो यातनायें होती हैं, उन पर दृष्टि न देते हुए जो लोग सुख के आभास मात्र आधुनिक विषयसुख की नानाप्रकार के उपायों द्वारा प्रार्थना करते हैं। वे आयु और युवावस्था का नाश होने पर वैराग्ययुक्त होकर पश्चात्ताप करते हैं। वे कहते हैं कि - मनुष्य जन्म पाकर मैंने जो शुभ वस्तु का आदर नहीं किया सो मैंने मुक्के से आकाश का ताडन किया तथा चावल निकालने के लिए भस्से का कण्डन किया (कुटा) ॥१॥ 1. विभवावलेपनटितैर्यानि क्रियन्ते यौवनमदेन । वयःपरिणामे स्मृतानितानि हृदयं व्यथन्ते ॥१॥ २३७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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