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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशः गाथा २-३ अभुंजिया नमी विदेही, रामगुत्ते य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्चा, तहा नारायणे रिसी छाया - अभुक्त्वा नमिवैदेही रामगुप्तभुक्त्वा । वाहुक उदकं भुक्त्वा तथा तारागण ऋषिः ॥ अन्वयार्थ – (नमी विदेही अभुञ्जिया) विदेह देश का राजा नमिराज ने आहार छोड़कर । और (रामगुत्ते) रामगुप्त ने (भुंजिया) आहार खाकर (बाहुए) तथा बाहुक ने शीतल जल का उपभोग कर ( तहा) इसी तरह ( नारायणे रिसी) नारायण ऋषि ने (उदगं भोच्चा) जल का उपभोग करके सिद्धि लाभ किया था । उपसर्गाधिकारः भावार्थ- कोई अज्ञानी पुरुष, साधु को भ्रष्ट करने के लिए कहता है कि - विदेह देश का राजा नमीराज ने आहार न खाकर सिद्धि प्राप्त की थी तथा रामगुप्त ने आहार खाकर सिद्धि लाभ किया था एवं बाहुक ने शीतल जल पीकर सिद्धि पायी थी तथा नारायण ऋषि ने भी जल पीकर मोक्ष पाया था । ॥२॥ तद्यथा - टीका - केचन कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः, यदिवा स्ववर्ग्याः शीतलविहारिण एतद् वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, • नमीराजा विदेहो नाम जनपदस्तत्र भवा वैदेहाः - तन्निवासिनो लोकास्तेऽस्य सन्तीति वैदेही, स एवम्भूतो नमी राजा अशनादिकमभुक्त्वा सिद्धिमुपगतः तथा रामगुप्तश्च राजर्षिराहारादिकं 'भुक्त्वैव' भुञ्जान एव सिद्धिं प्राप्त इति तथा बाहुकः शीतोदकादिपरिभोगं कृत्वा तथा नारायणो नाम महर्षिः परिणतोदकादिपरिभोगात्सिद्ध इति ॥२॥ अपिच आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । परासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य टीकार्थ- कोई कुतीर्थी साधु को धोखा देने के लिए इस प्रकार कहते हैं अथवा शिथिल विहारी कोई स्ववर्गी यह आगे कही जानेवाली बातें कहते हैं, जैसे कि - विदेह नाम का देश विशेष है, उसमें निवास करनेवाली प्रजा को 'वैदेह' कहते हैं । वह प्रजा जिसके आधीन है, उसे वैदेही कहते हैं अर्थात् विदेह देश में रहनेवाली प्रजा के अधिपति नमीराज ने अशन आदि आहारों को छोड़कर सिद्धि प्राप्त की थी तथा राजर्षि रामगुप्त ने आहार खाकर सिद्धिलाभ किया था । एवं बाहुक ने शीतल जल आदि का उपभोग करके सिद्धि पायी थी । एवं नारायण महर्षि ने पका हुआ जल आदि का परिभोग करके मोक्ष लाभ किया था ||२|| ॥३॥ छाया - आसिलो देवलश्चैव द्वैपायनो महाऋषिः । पराशर उदकं भुक्त्वा बीजानि हरितानि च । अन्वयार्थ - (आसिले) असिलऋषि (देविले) देवल ऋषि ( महारिसी दीवायण) तथा महर्षि द्वैपायन (परासरे) एवं पराशर ऋषि इन लोगों ने ( दगं बीयाणि हरियाणि भोच्चा) शीतलजल, बीज और हरी वनस्पतियों का आहार करके मोक्ष पाया था । भावार्थ - आसिल, देवल, महर्षि द्वैपायन तथा पराशर ऋषि ने शीतल जल बीज और हरी वनस्पतियों को खाकर मोक्ष लाभ किया था । टीका - आसिलो नाम महर्षिस्तथा देविलो द्वैपायनश्च तथा पराशराख्य इत्येवमादयः शीतोदक- बीजहरितादिपरिभोगादेव सिद्धा इति श्रूयते ॥३॥ २२६ टीकार्थ आसिल नामक महर्षि तथा देवल ऋषि, द्वैपायन ऋषि एवं पराशर नामक ऋषि इत्यादि ऋषियों ने शीतल जल, बीज और हरी वनस्पतियों के उपभोग से ही सिद्धिलाभ किया था, यह सुना जाता है ||३|| एतदेव दर्शयितुमाह पहले जो कहा गया है, उसी को दर्शाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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