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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा २१ उपसर्गाधिकारः ___ क्या करके साधु को यह करना चाहिए सो दिखाने के लिए कहते हैं - संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिनिव्वुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएज्जाऽसि ॥२१॥ त्ति बेमि । इति तईयअज्झयणस्स तईओ उद्देसो समत्तो ।। (गाथागू. २३४) छाया - संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । उपसर्गान् नियम्य आमोक्षाय परिव्रजेदिति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ - (दिट्टिम) पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला (परिनिब्बुडे) रागद्वेषरहित शान्त मुनि (पेसलं धम्म) उत्तम धर्म को (संखाय) जानकर (उवसग्गे) उपसर्गों को (नियामित्ता) वश में करके (आमोक्खाए) मोक्षप्राप्ति पर्यन्त (परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ - पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला शांत मुनि इस उत्तम धर्म को जानकर तथा उपसों को सहन करता हुआ मोक्षपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । ___टीका - 'संखाये' त्यादि, संख्याय-ज्ञात्वा कं ? - 'धर्म' सर्वज्ञप्रणीतं श्रुतचारित्राख्यभेदभिन्नं 'पेशलम्' इति सुश्लिष्टं प्राणिनामहिंसादिप्रवृत्त्या प्रीतिकारणं, किम्भूतमिति दर्शयति - दर्शनं दृष्टिः सद्भूतपदार्थगता सम्यग्दर्शनमित्यर्थः सा विद्यते यस्यासौ दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदवानित्यर्थः, तथा 'परिनिवृत्तो' रागद्वेषविरहाच्छान्तीभूतस्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वृत उपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान्नियम्य - संयम्य सोढा, नोपसर्गेरुपसर्गितोऽसमञ्जसं विदध्यादित्येवम् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयप्राप्तिं यावत् परि - समन्तात् व्रजेत् - संयमानुष्ठानोद्युक्तो भवेत् परिव्रजेद्, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमिति पूर्ववत् ।।२१।। उपसर्गपरिज्ञायास्तृतीयोद्देशकः समाप्तः ।।३।। टीकार्थ - जानकर, क्या जानकर ? सर्वज्ञप्रणीत श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानकर, वह धर्म सुघटित है अर्थात् अहिंसा आदि में प्रवृत्ति होने के कारण प्राणियों की प्रीति का कारण है, वह मुनि कैसा है ? सो दिखलाते हैं - पदार्थों का यथार्थ स्वरूप देखना अर्थात् सम्यग्दर्शन को दृष्टि कहते हैं, वह दृष्टि जिसमें विद्यमान है, उसे दृष्टिमान् कहते हैं । जो पुरुष पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानता है, उसे दृष्टिमान कहते हैं । तथा जो राग-द्वेष रहित होने के कारण शांत स्वभावी है, उसे परिनिर्वृत कहते हैं । इस प्रकार उक्त उत्तम धर्म को जानकर पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला शांत-मुनि अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन (वश में) करे । उपसर्गों की बाधा उपस्थित होने पर अनुचित कार्य न करे । इस प्रकार वह मुनि जब तक समस्त कर्मों के क्षय स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक अच्छी तरह से संयम का अनुष्ठान करे ॥२१॥ इति शब्द समाप्ति अर्थ में आया है । ब्रवीमि यह पूर्ववत् है । ॥ इति तृतीयाध्ययनस्य् तृतीय उद्देशकः समाप्तः । । उपसर्गपरिज्ञाध्ययन का तीसरा उद्देशा समाप्त हुआ । २२४
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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