SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशके: गाथा १० उपसर्गाधिकारः टीकार्थ - जो आपस में एकी भाव से अर्थात् उपकार्य और उपकारक रूप से बंधे हुए हैं । वह संबद्ध कहलाता हैं अर्थात् पुत्र और स्त्री आदि के स्नेह पाश में बंधे हुए गृहस्थ 'संबद्ध' कहलाते हैं। उन गृहस्थों के समान जिनका व्यवहार (अनुष्ठान) है वे 'सम्बद्धसमकल्प' कहलाते हैं । अर्थात् जो गृहस्थों के समान अनुष्ठान करते हैं वे 'संबद्धसमकल्प' हैं । क्योंकि जैसे गृहस्थ परस्पर उपकार द्वारा माता, पुत्र में और पुत्र, माता आदि में आसक्त रहते हैं। उसी तरह आप लोग भी शिष्य और आचार्य के उपकार द्वारा परस्पर मूर्छित रहते हैं । यह गृहस्थों का व्यवहार है कि वे दूसरे को दान आदि के द्वारा उपकार करते हैं । परन्तु साधुओं का यह व्यवहार नहीं है। किस प्रकार आप लोग परस्पर मर्छित रहते हैं सो दिखलाते हैं - आप लोग रोगी साधु के लिए आहार का अन्वेषण करते हैं और रोगी के खाने योग्य आहार अन्वेषण करके उसे देते हैं तथा 'च' शब्द से आचार्य आदि का उपकार करते हैं । इसलिए आपलोग गृहस्थ के समान व्यवहारवाले हैं ॥९॥ साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन दोषदर्शनायाह - अब अन्यतीर्थियों के आक्षेप वाक्यों की समाप्ति करते हुए शास्त्रकार उनकी ओर से दोष बताने के लिए कहते हैं - एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नमणुव्वसा । नट्ठसप्पहसब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ छाया - एवं यूयं सरागस्था, अन्योऽज्यमनुवशाः । नष्टसत्पथसद्धावाः संसारस्यापारगाः ॥ अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (तुब्भे) आपलोग (सरागत्था) राग सहित है (अन्नमन्त्रमणुव्वसा) और परस्पर एक दूसरे के वश में रहते हैं (नट्ठसपहसम्मावा) अतः आपलोग सत्पथ और सद्भाव से हीन हैं (संसारस्स) और इसलिए संसार से (अपारगा) पार जानेवाले नहीं है। और सद्भाव से रहित है। भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्यग्दृष्टि साधुओं पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि आप लोग पूर्वोक्त प्रकार से राग सहित और एक दूसरे के वश में रहते हैं, अतः आपलोग सत्पथ और सद्भाव से रहित हैं तथा संसार को पार नहीं कर सकते हैं। टीका - ‘एवं परस्परोपकारादिना यूयं गृहस्था इव सरागस्थाः - सह रागेण वर्तत इति सरागः - स्वभावस्तस्मिन् तिष्ठन्तीति ते तथा, 'अन्योन्यं' परस्परतो वशमुपागताः - परस्परायत्ताः, यतयो हि निःसङ्गतया न कस्यचिदायत्ता भवन्ति, यतो गृहस्थानामयं न्याय इति, तथा नष्टः - अपगतः सत्पथः - सद्धावः - सन्मार्गः परमार्थो येभ्यस्ते तथा एवम्भूताश्च यूयं 'संसारस्य' चतुर्गतिभ्रमणलक्षणस्य 'अपारगा' अतीरगामिन इति ॥१०॥ __टीकार्थ - आप लोग आपस में एक दूसरे के उपकार द्वारा गृहस्थ की तरह राग युक्त हैं । जो राग के सहित है ऐसे स्वभाव को सराग कहते हैं, उस स्वभाव में जो स्थित है, उसे सरागस्थ कहते हैं । तथा आप लोग परस्पर एक दूसरे के वशीभूत अर्थात् आधीन रहते हैं, परंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि साधु पुरुष निःसङ्ग रहते हैं। वे किसी के वश में नहीं रहते । वश में रहना यह गृहस्थों का व्यवहार है। तथा आप लोग सन्मार्ग और सद्भाव अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हैं । अतः आप लोग चार गतियों में भ्रमणरूप संसार से पार पानेवाले नहीं हैं ॥१०॥ अयं तावत्पूर्वपक्षः अस्य च दूषणायाह - यह पूर्वपक्ष है । इसका दोष दिखाने के लिए अब शास्त्रकार कहते हैं - अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्खविसारए । २१५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy