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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोदेशके: गाथा ५ उपसर्गाधिकारः हस्तिशिक्षा तथा धनुर्वेद आदि विद्याएँ उस समय मेरी रक्षक हो सकती हैं। किसी के पूछने पर मैं इन विद्याओं को बताकर अपना निर्वाह कर सकूंगा । यह निश्चय कर अल्प पराक्रमी जीव, व्याकरण आदि विद्याओं के अध्ययन में परिश्रम करते हैं । यद्यपि वे अपने निर्वाह के लिए व्याकरण आदि विद्याएँ सीखते हैं, तथापि इन विद्याओं से उन अभागों का मनोरथ सिद्ध नहीं होता है । अतएव कहा है “उपशमफलाद्विद्याबीजात्" इत्यादि । अर्थात् विद्यारूपी बीज, शांति रूपी फल को उत्पन्न करता है । उस विद्यारूपी बीज से जो मनुष्य धनरूपी फल चाहता है, उसका परिश्रम यदि व्यर्थ हो तो इसमें क्या आश्चर्य है? पदार्थों का फल नियत होता है । इसलिए जिस पदार्थ का जो फल है, उससे अन्य फल वह अपने कर्ता को नहीं दे सकता, क्योंकि चावल के बीज से यव का अंकुर कभी उत्पन्न नहीं होता ||४|| उपसंहारार्थमाह - अब सूत्रकार इस विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं इच्चेव पडिलेहंति, वलयापडिलेहिणो । वितिगिच्छसमावन्ना, पंथाणं च अकोविया 11411 छाया - इत्येवं प्रतिलेखन्ति, वलयप्रतिलेखिनः । विचिकित्सासमापलाः पथश्चाकोविदाः ॥ अन्वयार्थ – (वितिगिच्छसमावन्ना) इस संयम का पालन मैं कर सकूंगा या नहीं इस प्रकार संशय करनेवाले ( पंथाणं च अकोविया) मार्ग को नहीं जाननेवाले (वलया पडिलेहिणो) गड्ढा आदि का अन्वेषण करनेवाले पुरुषों के समान ( इच्चेव पडिलेहंति ) इसी तरह का विचार करते हैं। भावार्थ - मैं इस संयम का पालन कर सकूंगा या नहीं, इस प्रकार संशय करनेवाले अल्पपराक्रमी जीव, युद्ध के अवसर में छिपने का स्थान अन्वेषण करनेवाले कायर के समान तथा मार्ग को नहीं जाननेवाले मूर्ख के समान यही सोचते रहते हैं कि संयम से भ्रष्ट होने पर इन व्याकरण आदि विद्याओं से मेरी रक्षा हो सकेगी । ‘इत्येवमि’ति पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शार्थः, यथा भीरवः सङ्ग्रामे प्रविविक्षवो वलयादिकं प्रति उपेक्षिणो भवन्तीति, एवं प्रव्रजिता मन्दभाग्यतया अल्पसत्त्वा आजीविकाभयाद् व्याकरणादिकं जीवनोपायत्वेन 'प्रत्युपेक्षन्ते' परिकल्पयन्ति, किम्भूता: ? विचिकित्सा - चित्तविप्लुतिः - किमेनं संयमभारमुत्क्षिप्तमन्तं नेतुं वयं समर्थाः उत नेतीत्येवम्भूता, तथा चोक्तम् - 'लुक्खमणुण्हमणिययं कालाइ कन्त भोयणं विरसं । भूमीसयणं लोओ असिणाणं बम्भचेरं च ||१|| तां समापन्नाः - समागताः, यथा पन्थानं प्रति 'अकोविदा' अनिपुणाः, किमयं पन्था विवक्षितं भूभागं यास्यत्युत तीत्येवं कृतचित्तविप्लुतयो भवन्ति, तथा तेऽपि संयमभारवहनं प्रति विचिकित्सां समापन्ना निमित्तगणितादिकं जीविकार्थं प्रत्युपेक्षन्त इति ॥ ५ ॥ टीकार्थ – ‘इत्येवम्' पद पहले कही हुई बात को बताने के लिए है । जैसे कायर पुरुष युद्ध में प्रवेश करने की इच्छा करते हुए संकट आने पर छिपने के लिए गड्ढा आदि गुप्त स्थानों का अन्वेषण करते हैं । इसी तरह कोई अल्पपराक्रमी प्रव्रजित (साधु) अपनी भाग्यहीनता के कारण आजीविका के भय से व्याकरण आदि विद्याओं को अपनी जीविका का उपाय कायम करते हैं । वे साधु कैसे हैं? सो बतलाते हैं चित्त की चंचलता को ‘विचिकित्सा' कहते हैं । उक्त साधु के चित्त में यह संशय बना रहता है कि यह जो संयमभार मैंने ले रखा हैं । इसे अंत तक ले जाने के लिए मैं समर्थ हो सकूंगा अथवा नहीं? कहा भी है "लुक्खं" अर्थात् प्रव्रजित पुरुष को पहले तो रुखा और ठंड़ा आहार मिलता है और कभी-कभी वह भी 1. रूक्षमनुष्णमनियतं कालातिक्रान्तं भोजनं विरसम् । भूमिशयनं लोचोऽस्नानं ब्रह्मचर्यं च ||१|| - २११
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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