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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १२ उपसर्गाधिकारः भावार्थ - जो पुरुष, माता पिता आदि स्वजनवर्ग के मोह में पड़कर प्रव्रज्या को छोड़ फिर घर चला आता है, उसके परिवार वर्ग नवीन ग्रहण किये हुए हाथी के समान उसकी बहुत खातिरदारी करते हैं और उसके पीछे-पीछे फिरते हैं । जैसे नयी व्याई हुई गाय अपने बच्छड़े के पास ही रहती है, इसी तरह परिवार वर्ग उसके पास ही रहता है । परवशीकृतः विबद्धो ज्ञातिसङ्गैः टीका विविधं बद्धः मातापित्रादिसम्बन्धैः, ते च तस्य तस्मिन्नवसरे सर्वमनुकूलमनुतिष्ठन्तो धृतिमुत्पादयन्ति, हस्तीवापि 'नवग्रहे' अभिनवग्रहणे, (यथा स ) धृत्युत्पादनार्थमिक्षुशकलादिभिरुपचर्यते, एवमसावपि सर्वानुकूलैरुपायैरुपचर्यते, दृष्टान्तान्तरमाह - यथाऽभिनवप्रसूता गौर्निजस्तनन्धयस्य 'अदूरगा' समीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसर्पति, एवं तेऽपि निजा उत्प्रव्रजितं पुनर्जातमिव मन्यमानाः पृष्ठतोऽनुसर्पन्ति - तन्मार्गानुयायिनो भवन्तीत्यर्थः ॥ ११॥ - -- टीकार्थ माता-पिता आदि के सम्बन्ध से वह विविध प्रकार से बंधा हुआ परवश हो जाता है और वे माता-पिता आदि उस समय उसके अनुकूल आचरण करते हुए उसको सन्तोष उत्पन्न करवाते हैं, जैसे नवीन ग्रहण किये हुए हाथी को संतोष उत्पन्न कराने के लिए लोग ईख का टुकड़ा आदि मधुर आहार देकर उसकी सेवा करते हैं । उसी तरह स्वजनवर्ग सब अनुकूल उपायों के द्वारा उसकी सेवा करते हैं । इस विषय में दूसरा दृष्टांत देते हैं । जैसे नूतन व्याई हुई गाय अपने बच्छड़े के समीप में रहती हुई उसके पीछे-पीछे दौड़ती फिरती है । इसी तरह वे परिवार वाले भी प्रव्रज्या छोड़े हुए उस पुरुष का नवीन जन्म हुआ मानकर उसके पीछे-पीछे फिरता है। वह जिस मार्ग से जाता है, उसी से वे भी जाते हैं । यह अर्थ है ||११|| - सङ्गदोषदर्शनायाह स्वजन वर्ग के संग का दोष बताने के लिए सूत्रकार कहते है ? - एते संगा मणूसाणं, पाताला व अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, नाइसंगेहिं मुच्छिया ।।१२।। छाया - एते सङ्गाः मनुष्याणां पाताला इवातार्य्याः । क्लीबाः यत्रः क्लिश्यन्ति ज्ञातिसङ्गैर्मूर्च्छिताः ॥ अन्वयार्थ - (एते) यह (संगा) माता-पिता आदि का संग (मणूसाणं) मनुष्यों के लिए ( पाताला व ) समुद्र के समान ( अतारिमा ) दुस्तर है । (जत्थ) जिसमें (नाइसङ्गेहिं) ज्ञाति संसर्ग में (मुच्छिया) आसक्त (कीवा) असमर्थ पुरुष ( किस्सन्ति) क्लेश पाते हैं । भावार्थ - यह माता-पिता आदि स्वजनवर्ग का स्नेह, समुद्र के समान, मनुष्यों के द्वारा दुस्तर होता है। इस स्नेह में पड़कर शक्तिहीन पुरुष, क्लेश भोगता है। टीका- 'एते' पूर्वोक्ताः सज्यन्त इति सङ्गा - मातृपित्रादिसम्बन्धाः कर्मोपदानहेतवः, मनुष्याणां 'पाताला इव' समुद्रा इवाप्रतिष्ठितभूमितलत्वात् ते 'अतारिम' त्ति दुस्तराः, एवमेतेऽपि सङ्गा अल्पसत्त्वैर्दुःखेनातिलङ्घयन्ते, 'यत्र च' येषु सङ्गेषु 'क्लीबा' असमर्थाः 'क्लिश्यन्ति' क्लेशमनुभवन्ति, संसारान्तर्वतिनो भवन्तीत्यर्थः किंभूताः ? - 'ज्ञातिसङ्गैः ' पुत्रादिसम्बन्धैः 'मूर्च्छिता' गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तो, न पर्यालोचयन्त्यात्मानं संसारान्तर्वर्तिनमेवं क्लिश्यन्तमिति ॥१२॥ अपि च टीकार्थ - अर्थात् जो जीव को बांध लेता है, उसे 'सङ्ग' कहते हैं। माता-पिता आदि स्वजनवर्ग के सम्बन्ध को 'सङ्ग' कहते हैं, क्योंकि वह जीव को अपने बन्धन में बांध लेता है । वह सम्बन्ध, कर्मबंध का हेतु है और जैसे तल वर्जित होने के कारण समुद्र मनुष्यों के द्वारा दुस्तर होता है, उसी तरह यह भी अल्पपराक्रमी जीव से दुर्लंघ्य होता है । इस माता-पिता आदि स्वजनवर्ग के सङ्ग में आसक्त असमर्थ पुरुष क्लेश भोगते हैं। वे, संसार में सदा पड़े रहते हैं, वे कैसे हैं? पुत्र आदि के सम्बन्ध में आसक्त जीव, संसार में पड़कर क्लेश भोगते हुए अपने आत्मा के विषय में विचार नहीं करते हैं ||१२|| और भी २०१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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