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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा १७ उपसर्गाधिकारः उपसर्ग कहे गये हैं । वे सभी स्पशेंद्रिय के द्वारा अनुभव किये जाते हैं । इसलिए 'स्पर्श' कहलाते हैं। वे सभी परीषह अनार्य पुरुषों के द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं और वे पीड़ाकारी तथा अल्पपराक्रमी जीवों से असहनीय होते हैं। कोई लघुप्रकृति पुरुष, अपनी प्रशंसा करते हुए पहले तो संयम ग्रहण कर लेते हैं परंतु पश्चात् युद्ध भूमि में बाणों के प्रहार से पीड़ित कायर हाथी जैसे वहां से भाग जाता है । इसी तरह वे भी पूर्वोक्त परीषहों के सहन में असमर्थ होकर फिर गृहवास में प्रवृत्त हो जाते हैं । वस्तुतः वे पुरुष गुरुकर्मी हैं । कहीं - कहीं 'तिव्वसड्डे' यह पाठ मिलता है। इसका अर्थ यह है कि तीव्र उपसर्गों से पीडित तथा असत अनुष्ठान करने वाले श ने संयम को छोडकर फिर घर को प्रस्थान किया है। यह मैं कहता हूँ ॥१७॥ उपसर्गपरिज्ञायाः प्रथमोद्देशक इति - उपसर्गपरिज्ञाध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ । ॥ इति तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशक: समाप्त: (गाथागू. १९१) ॥
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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