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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ६ उपसर्गाधिकारः संयम से भ्रष्ट हो जाता हैं। आशय यह है कि जैसे मछली जल कम होने पर ग्रीष्मऋतु की गर्मी से तप्त होकर दुःख को प्राप्त होती है । इसी तरह अल्पपराक्रमी पुरुष, चारित्र लेकर भी मल और पसीना से भीगा हुआ तथा बाहर की गर्मी से तप्त हुआ शीतल जलाधार, तथा जल के धारागृह और गर्मी को दूर करने वाले चन्दन आदि पदार्थों को स्मरण करता है । इस प्रकार व्याकुल चित्त होकर वह संयम के अनुष्ठान में विषाद अनुभव करता है ॥५॥ - साम्प्रतं याञ्चापरीषहमधिकृत्याह अब याञ्चा (भिक्षाचरी) परीषह के विषय में सूत्रकार कहते हैं सदा दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया । कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इच्चाहंसु पुढोजणा छाया - सदा दत्तैषणा दुःखं याचा दुष्प्रणोद्या । कर्मार्ताः दुर्भगाश्चैवेत्याहुः पृथग्जनाः ॥ अन्वयार्थ - (दत्तेसणा) दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु का ही अन्वेषण करना (दुःख) यह दुःख (सदा) सदा जीवनभर साधु को रहता है । (जायणा) भिक्षा मांगने का कष्ट ( दुप्पणोलिया) दुःसह्य होता है । (पुढोजणा) प्राकृत पुरुष ( इच्चाहंसु ) यह कहते हैं कि (कम्मत्ता) ये लोग अपने पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं (दुब्भगा चेव) तथा ये लोग भाग्यहीन हैं। ॥६॥ भावार्थ - साधु को दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु का ही अन्वेषण करने का दुःख, सदा बना रहता है । याचना परीषह सहन करना बहुत कठिन है । उस पर भी साधारण पुरुष, साधु को देखकर कहते हैं कि ये लोग अपने पूर्व कृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं तथा भाग्यहीन हैं । टीका 'सदा दत्त' इत्यादि, यतीनां 'सदा' सर्वदा दन्तशोधनाद्यपि परेण दत्तम् एषणीयम् - उत्पादाद्येषणादोषरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः क्षुधादिवेदनार्त्तानां यावज्जीवं परदत्तैषणा दुःखं भवति, अपि चेयं 'याञ्चा' याञ्चापरीषहोऽल्पसत्त्वैर्दुःखेन 'प्रणोद्यते' त्यज्यते, तथा चोक्तम् - खिज्जइ मुहलावण्णं वाया घोलेइ कण्ठम कहकहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणतस्स ||१|| - गतिभ्रंशी मुखे दैन्यं, गात्रस्वेदो विवर्णता । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ||१|| इत्यादि, एवं दुस्त्यजं याञ्चापरीषहं परित्यज्य गताभिमाना महासत्त्वा ज्ञानाद्यभिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्थानमुनव्रजन्तीति । श्लोकपश्चार्धेनाऽऽक्रोशपरीषहं दर्शयति 'पृथग्जनाः' प्राकृतपुरुषा अनार्यकल्पा 'इत्येवमाहुः' इत्येवमुक्तवन्तः, तद्यथा- ये एते यतय: जल्लाविलदेहा लुञ्चितशिरसः क्षुधादिवेदनाग्रस्तास्ते एते पूर्वाचरितैः कर्मभिरार्त्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदिवा - कर्मभि: - कृष्यादिभिरार्त्ताः - तत्कुर्त्तुमसमर्था उद्विग्नाः सन्तो यतयः संवृत्ता इति, तथैते 'दुर्भगाः' सर्वेणैव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निर्गतिकाः सन्तः प्रव्रज्यामभ्युपगता इति ॥६॥ टीकार्थ साधु को सदा दंतशोधन आदि वस्तु भी दूसरे के द्वारा दी हुई ही अन्वेषण [ग्रहण] करनी पड़ती है तथा उत्पाद आदि और एषणा दोष वर्जित ही आहार ही लेना होता है, इसलिए क्षुधा आदि की वेदना से पीड़ित साधु को जीवनभर दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु को अन्वेषण करने का दुःख भोगना पड़ता है तथा यह जो भिक्षा मांगने का कष्ट है । यह अल्पपराक्रमी जीवों से असहनीय होता है । अत एव विद्वानों ने कहा है कि 'खिज्जई' अर्थात् जो पुरुष किसी से कुछ मांगता हुआ यह कहता है कि 'अमुक वस्तु मुझको दो' उसके मुख का लावण्य क्षीण हो जाता है और वाणी, कण्ठ के मध्य में ही घूर्णित होने लगती है तथा हृदय व्याकुल 1. क्षीयते मुखलावण्यं वाचा गिलति (घूर्णति) कण्ठमध्ये | कहकहकहितहृदयं देहीति परं भणतः ||१|| १८६
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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