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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशः प्रस्तावना तृतीयाध्यनस्य प्रस्तावना 'उवक्कमिओ संजमविग्धकरे?, तत्थुवक्कमे पगयं । दव्ये चउव्विहो देवमणुयतिरियायसंवेत्तो ॥४७॥ नि० उपक्रमणमुपक्रमः, कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणमित्यर्थः, एतच्च यद्द्द्रव्योपयोगाद् येन वा द्रव्येणासातावेदनीयाद्यशुभं कर्मोदीर्य्यते, यदुदयाच्चाल्पसत्त्वस्य संयमविघातो भवति अत औपक्रमिक उपसर्गः संयमविघातकारीति, इह च यतीनां मोक्षं प्रति प्रवृत्तानां संयमो मोक्षाङ्गं वर्तते तस्य यो विघ्नहेतुः स एवात्राधिक्रियत इति दर्शयति - तत्र औघिकौपक्रमिकयोरौपक्रमिकेन प्रकृतं प्रस्तावः तेनात्राधिकार इति यावत्, स च द्रव्ये द्रव्यविषयश्चिन्त्यमानश्चतुर्विधो भवति, तद्यथा- दैविको मानुषस्तैरश्च आत्मसंवेदनश्चेति । साम्प्रतमेतेषामेव भेदमाह एक्केक्को य चउव्विहो अट्ठविहो वावि सोलसविहो वा । घडण जयणा व तेसिं एतो वोच्छं अहि (ही) यारं ( रा ) ॥४८॥ नि० एकैको दिव्यादिः 'चतुर्विधः ' चतुर्भेदः, तत्र दिव्यस्तावद् हास्यात् प्रद्वेषाद् विमर्शात् पृथग्विमात्रातश्चेति, मानुषा अपि हास्यतः प्रद्वेषाद्विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनातश्च, तैरश्चा अपि चतुर्विधाः तद्यथा भयाद् प्रद्वेषाद् आहारादपत्यसंरक्षणात् आत्मसंवेदनाश्चतुर्विधाः, तद्यथा घट्टनातो लेशनात : - अङ्गुल्याद्यवयवसंश्लेषरूपायाः स्तम्भनातः प्रपाताच्चेति, यदि वा, वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजनितश्चतुर्धेति, स एव दिव्यादिश्चतुर्विधोऽनुकूलप्रतिकूलभेदाद् अष्टधा भवति । स एव दिव्यादिः प्रत्येकं यश्चतुर्धा प्राग्दर्शितः स चतुर्णां चतुष्ककानां मेलापकात् षोडशभेदो भवति तेषां चोपसर्गाणां यथा घटना - सम्बन्धः प्राप्तिः प्राप्तानां चाधिसहनं प्रति यतना भवति तथाऽत ऊर्ध्वमध्ययनेन वक्ष्यते इत्ययमत्रार्थाधिकार इति भावः ||४८|| उद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह पढमंमि य पडिलोमा हुंती अणुलोमगा य बितीयंमि । तइए अज्झत्तविसीहणं च परवादिययणं च ॥ ४९ ॥ नि० हेउसरिसेहिं अहेउएहिं समयपडिएहिं णिउणेहिं । सीलखलितपण्णवणा, कया चउत्थंमि उद्देसे ॥५०॥ नि० प्रथमे उद्देशके प्रतिलोमाः प्रतिकूला उपसर्गाः प्रतिपाद्यन्त इति, तथा द्वितीये 'ज्ञातिकृताः' स्वजनापादिता अनुलोमा - अनुकूला इति, तथा तृतीये अध्यात्मविषीदनं परवादिवचनं चेत्ययमर्थाधिकार इति, चतुर्थोद्देशके अयमर्थाधिकारः, तद्यथा हेतुसदृशैः हेत्वाभासैर्येऽन्यतीर्थिकैर्व्युद्ग्राहिताः प्रतारितास्तेषां शीलस्खलितानां व्यामोहितानां प्रज्ञापना यथावस्थितार्थप्ररूपणा स्वसमयप्रतीतैर्निपुणभणितैर्हेतुभिः कृतेति ।।४९-५०। - टीकार्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से उपसर्ग छः प्रकार के होते हैं । इनमें अत्यन्त अभ्यास में आने के कारण नाम और स्थापना को छोडकर, द्रव्य उपसर्ग को नियुक्तिकार दर्शाते हैं - द्रव्य के विषय में उपसर्ग दो प्रकार का होता है, क्योंकि उपसर्ग उत्पन्न करनेवाले द्रव्य चेतन और अचेतन दो प्रकार के होते हैं। इनमें चेतन प्राणी तिर्यञ्च और मनुष्य अपने अङ्गों का घात करके जो उपसर्ग उत्पन्न करते हैं, वह सचित्त द्रव्य का किया हुआ उपसर्ग है। तथा काष्ठ आदि अचित्त द्रव्यों के द्वारा किया हुआ अपने अङ्गों का घात आदि अचित्त द्रव्योपसर्ग है । वस्तु का स्वरूप बताकर तथा उसका भेद कहकर एवं उसके पर्यायों का निर्देश करके वस्तु की व्याख्या की जाती है, अतः उपताप, शरीरपीडोत्पादन (शरीर में पीडा उत्पन्न करना) इत्यादि उपसर्ग के पर्याय हैं। एवं तिर्यञ्च का उपसर्ग और मनुष्यादिकृत उपसर्ग तथा उन उपसर्गों के नाम आदि उपसर्ग के भेद हैं । उपसर्ग के स्वरूप की व्याख्या तो नियुक्तिकार इस गाथा के उत्तरार्द्ध द्वारा स्वयमेव बता रहे हैं - जो किसी देवता आदि दूसरे पदार्थों से आता है, वह उपसर्ग कहलाता है । वह उपसर्ग देह को अथवा संयम को पीड़ा देता है ||४५ || अब नियुक्तिकार क्षेत्र उपसर्ग को बतलाते हैं जिस क्षेत्र में क्रूर जीव तथा चोर आदि के होनेवाले समूह रूप से बहुत से उपसर्ग के स्थान होते हैं, उस 2. उवक्कमिए । 3. कारए चू. । 1. बिइए णाईकया य अणुलोमा (पाठान्तर ) १८०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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