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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा २ अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः हुए हैं, वे तीर्थंकरोक्त १७ प्रकार के संयम के अनुष्ठान से प्रतिक्षण नाश को प्राप्त होते हैं । भाव यह है कि जिस तालाब में पानी आने का मार्ग बन्द है, उसमें पहले का रहा हुआ जल जैसे सूर्य की किरणों के सम्बन्ध से प्रतिदिन घटता जाता है, उसी तरह जिस साधु ने आश्रव द्वार को बन्द कर दिया है तथा इन्द्रिय, योग और कषाय को रोकने में सदा सावधान रहता है, उस संवृतात्मा पुरुष के अनेक जन्म संचित अज्ञान जनित, कर्म, संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाते हैं । जो पुरुष, संवृतात्मा है और सत्कर्म का अनुष्ठान करते हैं । वे मरण स्वभाव को प्राप्त करते हैं । जो सत् और असत् के विवेकी हैं, उन्हें पंडित कहते हैं । अथवा जो पहले कहा गया है उसे सर्वज्ञ पुरुष ऐसा ही कहते हैं ॥१॥ - येऽपि च तेनैव भवेन न मोक्षमाप्नुवन्ति तानधिकृत्याह - - जो पुरुष उसी भव में मोक्ष को नहीं प्राप्त करते हैं, उनके विषय में सूत्रकार कहते हैं - जे विनवणाहिऽजोसिया.संतिन्नेहिं समं वियाहिया। तम्हा उद्यं ति पासहा अदक्खु कामाइ रोगवं ॥२॥ छाया - ये विज्ञापनाभिर्जुष्टाः संतीणैः समं व्याख्याताः । तस्माद् ऊर्ध्वं पश्यत अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥ व्याकरण - (जे) सर्वनाम, अध्याहृत पुरुष का विशेषण (विनवणाहि) कर्तृ तृतीयान्त (अजोसिया) कर्मक्तान्त, पुरुष का विशेषण (ते) पुरुष का परामर्शक सर्वनाम (संतिन्नेहिं) तुल्यार्थक शब्द के योग में तृतीयान्त (सम) क्रिया विशेषण (वियाहिया) कर्म क्तान्त पुरुष का विशेषण (तम्हा) हेतु पञ्चम्यन्त (उड्ड) क्रिया विशेषण (पासह) क्रिया (कामाइ) कर्म (रोगवं) कर्म विशेषण (अदक्खु) क्रिया । अन्वयार्थ - (जे) जो पुरुष (विन्नवणाहिं) स्त्रियों से (अजोसिया) सेवित नहीं हैं (संतिन्नेहिं) वे मुक्त पुरुषों के (सम) समान (वियाहिया) कहे गये हैं (तम्हा) इसलिए (उड्डं) स्त्री परित्याग के बाद ही (पासहा) मोक्ष की प्राप्ति होती है । यह देखो (कामाइ) काम भोगों को जिन पुरुषों ने (रोगवं) रोग के समान (अदक्खु) देखा है । वे मुक्त के समान हैं। भावार्थ - जो पुरुष, स्त्रियों से सेवित नहीं है। वे मुक्त पुरुष के सदृश हैं। स्त्री परित्याग के बाद मुक्ति होती है । यह जानना चाहिए । जिसने काम भोग को रोग के समान जान लिया है । वे पुरुष मुक्त पुरुष के सदृश हैं । टीका - ये महासत्त्वाः कामार्थिभिर्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ताः विज्ञापनाः स्त्रियस्ताभिः अजुष्टाः असेविताः क्षयं वा अवसायलक्षणमतीतास्ते सन्तीर्णैः मुक्तैः समं व्याख्याताः, अतीर्णा अपि सन्तो यतस्ते निष्किञ्चनतया शब्दादिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वतस्तटोपान्तवर्तिनो भवन्ति, तस्माद् ऊर्ध्वमिति मोक्षं योषित्परित्यागाद्वोध्वं यद् भवति तत्पश्यत यूयम् । ये च कामान् रोगवद् व्याधिकल्पान् अद्राक्षुः दृष्टवन्तस्ते संतीर्णसमाः व्याख्याताः । तथा चोक्तम् - पुप्फफलाणं च रसं सुराइ मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरया ते दुकरकारए वंदे" ||१|| तृतीयपादस्य पाठान्तरं वा "उड्डे तिरियं अहे तहा" ऊर्ध्वमिति सौधर्मादिषु तिरियमिति तिर्यग्लोके, अध इति भवनपत्यादौ ये कामास्तान् रोगवद् अद्राक्षुर्ये ते तीर्णकल्पाः व्याख्याता इति ॥२॥ टीकार्थ - कामी पुरुष जिसके प्रति अपनी कामना प्रकट करता है अथवा जो काम सेवन के लिए कामी को अपना अभिप्राय प्रकट करती हैं, उसे 'विज्ञापना' कहते हैं । 'विज्ञापना' नाम स्त्रियों का है । जो महासत्त्व पुरुष स्त्रियों से सेवित नहीं हैं अथवा जो स्त्रियों के द्वारा विनाश स्वरूप क्षय को प्राप्त नहीं हैं वे, मुक्त पुरुषों के सदृश कहे गये हैं। यद्यपि वे संसार सागर को पार किये हुए नहीं हैं तथापि वे निष्किञ्चन और शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं होने के कारण संसार सागर के तट के समीप ही स्थित हैं । इसलिए स्त्री संसर्ग के त्याग के 1. झोषोऽवसानम् । 2. स्तटान्तर्व० प्र. । 3. पुष्पफलानां च रसं सुराया मंसस्य महेलानां च । जानन्तो ये विरतास्तान् दुष्करकारकान् वन्दे ।।१।। १६१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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