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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा ३० अणि सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज्ज 'समाहिइंदिए आत्तहियं खु दुहेण लब्भइ मानपरित्यागाधिकारः ||३०| छाया - अस्निहः सहितः सुसंवृतः, धर्मार्थी उपधानवीर्य्यः । विहरेत्समाहितेन्द्रियः, आत्महितं दुःखेन लभ्यते || व्याकरण - ( अणिहे सहिए, सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए, समाहिईदिए ) ये सब आक्षिप्त मुनि के विशेषण हैं । (विहरेज्जा) क्रिया ( आत्तहिअं) कर्म (खु) अव्यय (दुहेण) करण (लब्मइ ) क्रिया । अन्वयार्थ - ( अणिहे) साधु पुरुष, किसी भी वस्तु में स्नेह न करे ( सहिए ) जिससे अपना हित हो वह कार्य्य करे ( सुसंवुडे) इन्द्रिय तथा मन से गुप्त रहे (धम्मट्ठी) धर्मार्थी बने (उवहाणवीरिए) तप में पराक्रम प्रकट करे ( समाहि इदिए ) इन्द्रिय को वश में रखे (विहरेज्ज) इस प्रकार साधु संयम का अनुष्ठान करे क्योंकि ( आत्तहियं) अपना कल्याण (दुहेण) दुःख से (लब्भइ) प्राप्त किया जाता है । भावार्थ - साधु पुरुष, किसी भी वस्तुपर ममता न करे तथा जिससे अपना हित हो उस कार्य में सदा प्रवृत्त रहे। इन्द्रिय तथा मन से गुप्त रहकर वह धर्मार्थी बनें। एवं तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ जितेन्द्रिय होकर संयम का अनुष्ठान करे क्योंकि अपना कल्याण दुःख से प्राप्त होता है । टीका - स्निह्यत इति स्निहः न स्निहः अस्निहः सर्वत्र ममत्वरहित इत्यर्थः, यदि वा - परीषहोपसर्गैर्निहन्यते इति निहः न निहोऽनिह: - उपसर्गैरपराजित इत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'अणहे' त्ति नास्याघमस्तीत्यनघो, निरवद्यानुष्ठायीत्यर्थः, सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो - युक्तो वा ज्ञानादिभिः स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः, तामेव दर्शयति- सुष्ठु संवृत इन्द्रियनोइन्द्रियैर्विस्रोतसिकारहित इत्यर्थः, तथा धर्मः श्रुतचारित्राख्यः तेनाऽर्थः - प्रयोजनं स एवार्थः तस्यैव सद्भिरर्थ्यमानत्वाद् धर्मार्थः स यस्यास्तीति धर्मार्थी तथा उपधानं तपस्तत्र वीर्यवान् स एवंभूतो विहरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् समाहितेन्द्रियः संयतेन्द्रियः कुत एवं ? यत आत्महितं दुःखेनासुमता संसारे पर्य्यटता अकृतधर्मानुष्ठानेन लभ्यते अवाप्यत इति तथाहि "न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥” तथाहि युगसमिलादिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यभव एव तावद् दुर्लभः, तत्राऽप्यार्य्यक्षेत्रादिकं दुरापमिति, अत आत्महितं दुःखेनावाप्यत इति मन्तव्यम् । अपि च - भूतेषु जङ्गमत्वं तस्मिन् पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टम् । तस्मादपि मानुष्यं मानुष्येऽप्यार्यदेशश्च ||१|| देशे कुलं प्रधानं कुले प्रधाने जातिरुत्कृष्टा । जातौ रूपसमृद्धी रूपे च बलं विशिष्टतमम् ॥२॥ भवति बले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । विज्ञाने सम्यक्त्वं सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः ||३|| एतत्पूर्वश्चायं समासतो मोक्षसाधनोपायः । तत्र च बहु सम्प्राप्तं भवद्भिरल्पं च संप्राप्यम् ||४|| तत्कुरुतोद्यममधुना मदुक्तमार्गे समाधिमाधाय । त्यक्त्वा सङ्गमनार्य्यं कार्यं सद्भिः सदा श्रेयः ॥५ इति ३०॥ टीकार्थ किसी वस्तु पर प्रेम करनेवाला 'स्निह' कहलाता है तथा किसी वस्तु पर प्रेम नहीं करनेवाला 'अस्निह' कहलाता है । आशय यह है कि साधु, सर्वत्र ममता का त्याग करे । अथवा परीषह और उपसर्गों के द्वारा जो पराजित किया जाता है, उसे 'स्निह' कहते हैं और जो परीषह तथा उपसर्गों से पराजित नहीं किया जा सकता है, उसे 'अस्निह' कहते हैं । साधु परीषह तथा उपसर्गों से पराजित न हो यह आशय है । यहाँ 'अणहे' यह पाठान्तर भी पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि- साधु पाप रहित यानी निरवद्य कर्म का अनुष्ठान करे। साधु अपने हित के साथ रहे अथवा ज्ञान आदि से युक्त रहे अथवा वह सत्कर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होकर अपना हित सम्पादन करे । सत् अनुष्ठान में प्रवृत्ति दिखाने के लिए कहते हैं कि- "सुसंवुडे" अर्थात् साधु इन्द्रिय और नो इन्द्रियों के द्वारा विषय तृष्णा रहित होकर रहे । श्रुत और चारित्र को धर्म कहते हैं । उस धर्म को ही साधु अपना प्रयोजन जाने क्योंकि सज्जन पुरुष धर्म की ही प्रार्थना करते हैं । एवं साधु तप में अपना पराक्रम प्रकट करे और जितेन्द्रिय होकर संयम का अनुष्ठान करे । वह ऐसा इसलिए करे कि संसार सागर में भ्रमण करनेवाले प्राणी को धर्मानुष्ठान किये बिना आत्महित की प्राप्ति होनी बड़ी ही दुर्लभ है क्योंकि1. समाहितेंदिए, आतहितं दुक्खेण लब्मते चू. । १५७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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