SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा २४ कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है । टीका - कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो द्यूतकारः, महतोऽपि द्यूतजयस्य सद्भिर्निन्दितत्वादनर्थहेतुत्वाच्च कुत्सितत्वमिति, तमेव विशिनष्टि-अपराजितो दीव्यन् कुशलत्वादन्येन न जीयते, अक्षैः वा पाशकैः दीव्यन् क्रीडंस्तत्पातज्ञः कुशलो निपुण:, यथाऽसौ द्यूतकारोऽक्षैः पाशकैः कपर्दकैर्वा रममाणः 'कडमेव 'त्ति चतुष्कमेव गृहीत्वा तल्लब्धजयत्वात्तेनैव दीव्यति, ततोऽसौ तल्लब्धजयः सन्न कलिं एककं नाऽपि त्रैतं त्रिकं च नाऽपि द्वापरं द्विकं गृह्णातीति ॥२३॥ टीकार्थ जिसकी विजय निन्दित है उसे 'कुजय' कहते हैं। कुजय नाम जुआरी का है, क्योंकि जुआरी की महान् विजय होने पर भी सज्जन जन निन्दा ही करते हैं और वह है भी अनर्थ का कारण, इसलिए वह निन्दित है । अब जुआरी का विशेषण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- "अपराजितः " अर्थात् जुआ खेलने में निपुण होने के कारण जो दूसरे जुआरी से जीता नहीं जाता है वह 'अपराजित' कहा जाता है। जुआ खेलने में निपुण जुआरी जैसे जुआ, पाशा या कौड़ी खेलता हुआ कृतनामक चौथे स्थान को ही ग्रहण करके खेलता है, क्योंकि उसी के द्वारा विजय प्राप्त होती है, इसलिए इस प्रकार खेलता हुआ वह जुआरी कृत नामक स्थान के प्रभाव से विजय प्राप्त कर लेता है, परन्तु वह पहले दूसरे या तीसरे स्थानों को ग्रहण नहीं करता है ॥२३॥ दान्तिक माह अब दाष्टन्ति बताते हैं एवं लोगंमि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं 2 गिह हियं ति उत्तमं, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए छाया मानपरित्यागाधिकारः - 1138 11 एवं लोके त्रायिणोक्तो यो थर्मोऽनुत्तरः । तं गृहाण हितमित्युत्तमं कृतमिव शेषमपहाय पण्डितः ॥ व्याकरण - ( एवं ) अव्यय (लोगंमि) अधिकरण (ताइणा) कर्तृ तृतीयान्त ( बुइए) क्तान्त कर्मवाच्य (जे) धर्म का विशेषण (अणुत्तरे ) धर्म का विशेषण (धम्मे) क्तप्रत्यय से अभिहित कर्म (तं) कर्म (गिण्ह) क्रिया मध्यम पुरुष (हियं, उत्तमं ) कर्म का विशेषण (कडं) कर्म (इव) अव्यय (सेस) कर्म (अवहाय) पूर्व कालिक क्रिया (पंडिए) कर्ता । - अन्वयार्थ - ( एवं) इसी तरह (लोगंमि) इस लोक में (ताइणा) जगत की रक्षा करनेवाले सर्वज्ञ से (बुइए) कहा हुआ (जे) जो (अणुत्तरे ) सर्वोत्तम (धम्मे) धर्म है (गिण्ह) उसे ग्रहण करना चाहिए (हियंति उत्तमं ) वही हित तथा उत्तम है (सेसऽवहाय) चतुर जुआड़ी सब स्थानों को छोड़कर (कर्डमिव) जैसे कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है । भावार्थ - इस प्रकार इस लोक में जगत की रक्षा करनेवाले सर्वज्ञ ने जो सर्वोत्तम धर्म कहा है, उसे कल्याण कारक और उत्तम समझकर ग्रहण करो, जैसे चतुर जुआड़ी शेष स्थानों को छोड़कर चौथे स्थान (कृत युग) को ग्रहण करता है । टीका यथा द्यूतकारः प्राप्तजयत्वात् सर्वोत्तमं दीव्यंश्चतुष्कमेव गृह्णाति एवमस्मिन् लोके मनुष्यलोके तायिना त्रायिणा वा सर्वज्ञेनोक्तो योऽयं धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः श्रुतचारित्राख्यो वा नास्योत्तरः अधिकोऽस्तीत्यनुत्तरः तमेकान्तहितमिति कृत्वा सर्वोत्तमं च गृहाण विस्त्रोतसिकारहितः स्वीकुरु, पुनरपि निगमनार्थं तमेव दृष्टान्तं दर्शयति-यथा कश्चिद् द्यूतकारः कृतं कृतयुगं चतुष्कमित्यर्थः, शेषमेककादि अपहाय त्यक्त्वा दीव्यन् गृह्णाति, एवं पण्डितोऽपि - साधुरपि शेषं-गृहस्थकुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभावमपहाय सम्पूर्णं महान्तं सर्वोत्तमं धर्मं गृह्णीयादिति भावः ||२४|| टीकार्थ जैसे चतुर जुआरी विजय प्राप्ति का साधन होने के कारण सर्वोत्तम स्थान चौक को ही ग्रहण करके खेलता है, इसी तरह इस मनुष्य लोक में, सर्व प्राणि रक्षक सर्वज्ञ द्वारा कथित क्षान्ति आदि अथवा श्रुत चारित्र रूप सर्वोत्तम धर्म को ही एकान्त हित समझकर स्वीकार करे । निगमन के लिए फिर उसी दृष्टान्त को दिखाते 1. लोगेसि ताइणो बुइतेऽयं चू. । 2. गेण्ह चू. । १५२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy