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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा ४-५ मानपरित्यागाधिकारः साधु को किस स्थिति में रहकर लज्जा और मद नहीं करना चाहिए यह दर्शाने के लिए सूत्रकार कहते हैं सम अन्नयरंमि संजमे, संसुद्धे समणे परिव्वए । जे आवकहा समाहिए दविए कालमकासी पंडिए 11811 छाया-समोऽन्यतरस्मिन् संयमे संशुद्धः श्रमणः परिव्रजेत् । यावत् कथासमाहितो द्रव्यः कालमकार्षीत् पण्डितः ॥ व्याकरण - (संसुद्धे) (सम) ये दोनों श्रमण के विशेषण है, अथवा (संसुद्धे ) संयम का विशेषण है (संजमे) अधिकरण (अन्नयरंमि) संयम का विशेषण (समणे) कर्ता (परिव्वए) क्रिया (जे आवकहा समाहिए) (दविए) ये दोनों पण्डित के विशेषण हैं (पंडिए) कर्ता (कालं) कर्म (अकासी) क्रिया । अन्वयार्थ - (संसुद्धे) सम्यक् प्रकार से शुद्ध (समणे) तपस्वी साधु (जे आवकहा) जीवन पर्य्यन्त ( अन्नयरंमि ) किसी भी ( संजमे) संयम स्थान में स्थित होकर (सम) समभाव के साथ (परिव्वए) प्रव्रज्या का पालन करे ( दविए) वह द्रव्यभूत (पंडिए) सत् और असत् का विवेकवाला पुरुष (समाहिए ) शुभ अध्यवसाय रखता हुआ (कालमकासी) मरण पर्य्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ - सम्यक् प्रकार से शुद्ध, शुभ अध्यवसायवाला, मुक्तिगमन योग्य, सत् और असत् के विवेक में कुशल तपस्वी साधु, मरण पर्य्यन्त किसी एक संयम स्थान में स्थित होकर समभाव के साथ प्रव्रज्या का पालन करे । टीका 'समे 'ति समभावोपेतः सामायिकादौ संयमे संयमस्थाने वा षट्स्थानपतितत्वात् संयमस्थानानामन्यतरस्मिन् संयमस्थाने छेदोपस्थापनीयादौ वा तदेव विशिनष्टि सम्यक्शुद्धे सम्यक् शुद्धो वा 'श्रमण: ' तपस्वी लज्जामदपरित्यागेन समानमना वा 'परिव्रजेत्' संयमोद्युक्तो भवेत् स्यात् - कियन्तं कालम् ?, यावत् कथा - देवदत्तो यज्ञदत्त इति कथां यावत् सम्यगाहित आत्मा ज्ञानादौ येन स समाहितः समाधिना वा शोभनाध्यवसायेन युक्तः, द्रव्यभूतो रागद्वेषादिरहितः मुक्तिगमनयोग्यतया वा भव्यः स एवम्भूतः कालमकार्षीत् 'पण्डितः' सदसद्विवेककलितः, एतदुक्तं भवति-देवदत्त इति कथा मृतस्यापि भवति अतो यावन्मृत्युकालं तावल्लज्जामदपरित्यागोपेतेन संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति स्यात् ॥४॥ टीकार्थ - समभाव से युक्त सामायिक आदि संयम में स्थित अथवा छः भागों में विभक्त संयम स्थानों में से किसी भी संयम स्थान में स्थित अथवा छेदोपस्थापनीय आदि में रहता हुआ तपस्वी मुनि अथवा सम्यक् प्रकार से शुद्ध तपस्वी लज्जा और मद का त्याग कर के समान मनवाला होकर संयम पालन में तत्पर रहे। वह साधु कितने काल तक ऐसा करे ? समाधान यह है कि जब तक "देवदत्त या यज्ञदत्त हैं" यह कथा जगत् में उसके विषय में जारी रहे अर्थात् जब तक वह जीवित रहे, तब तक ज्ञान आदि में अपनी आत्मा को स्थापित रखता हुआ अथवा शुभ अध्यवसाय से युक्त होकर संयम का पालन करे । इस प्रकार द्रव्यभूत - यानी रागद्वेष रहित अथवा मुक्ति गमन योग्य और सत् तथा असत् के विवेक से युक्त साधु मरण पर्यान्त संयम का अनुष्ठान करे। भाव यह है कि मरने पर भी 'देवदत्त' था, ऐसी कथा जगत् में रहती है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि जबतक मृत्युकाल न आवे तब-तक साधु लज्जा और मद को छोड़कर संयम का अनुष्ठान करे ||४|| किमालम्ब्यैतद्विधेयमिति, उच्यते किस वस्तु का आलंबन लेकर साधु ऐसा करे सो शास्त्रकार बताते हैं १३६ - दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तहा । पुट्ठे परुसेहिं माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ 11411 छाया - दूरमनुदृश्य मुनिरतीतं धर्ममनागतं तथा । स्पृष्टः परुषैर्माहनः अपि हब्यमानः समये रीयते ॥ व्याकरण - (मुणी) कर्ता (दूरं) कर्म (तहा) अव्यय (तीतं, अणागयं) धर्म के विशेषण हैं (धम्मं) कर्म (अणुपस्सिया) पूर्व कालिक क्रिया
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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