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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १७ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः ____टीका - 'उट्ठिये' त्यादि, अगारं, गृहं तदस्य नास्तीत्यनगारः तमेवंभूतं संयमोत्थानेनैषणां प्रत्युत्थितं-प्रवृत्तं, श्राम्यतीति श्रमणस्तं, तथा स्थानस्थितम् उत्तरोत्तरविशिष्टसंयमस्थानाध्यासिनं तपस्विनं विशिष्टतपोनिष्टप्तदेहं तमेवंभूतमपि कदाचित् डहराः पुत्रनप्तादयः वृद्धाः पितृमातुलादयः उन्निष्क्रामयितुं प्रार्थयेयुर्याचेरन्, त एवमूचुः- भवता वयं प्रतिपाल्याः न त्वामन्तरेणास्माकं कश्चिदस्ति, त्वं वाऽस्माकमेक एव प्रतिपाल्यः (इति) भणन्तस्ते जना अपि शुष्येयुः श्रमं गच्छेयुः न च तं साधुं विदितपरमार्थं लभेरन् नैवात्मसात्कुर्यु: नैवात्मवशगं विदध्युरिति ॥१६॥ किञ्च - टीकार्थ - घर को 'अगार' कहते हैं। घर जिसको नहीं है, उसे 'अनगार' कहते हैं । जो पुरुष घर से रहित है तथा संयम धारण करके एषणा के पालन करने में प्रवृत्त है तथा जो तपस्या आदि में परिश्रम करता है एवं उत्तरोत्तर विशिष्ट संयम में स्थित होता हुआ विशिष्ट तप के द्वारा अपने शरीर को खूब ताप दे रहा है, उस साधु के पास कदाचित् उसके बेटे-पोते तथा उसके बाप और मामा आदि आकर प्रव्रज्या छोड़ने की प्रार्थना करें और वे कहें कि - "आप हमारा पालन करें, क्योंकि आप के सिवाय दूसरा हमारा अवलम्ब नहीं है, अथवा एकमात्र आप ही हमारे पालनीय हैं।" इस प्रकार कहते हुए वे लोग थक जायँ परन्तु वस्तु तत्व को जानने वाले मुनि को वे अपने अधीन नहीं कर सकते हैं ॥१६॥ जइ कालुणियाणि कासिया जइ रोयंति य पुत्तकारणा। दवियं भिक्खू समुट्ठियं, णो लब्भंति ण संठवित्तए ॥१७॥ छाया - यदि कारुणिकानि कुर्युः यदि रुदन्ति च पुत्रकारणात् । द्रव्यं भिक्षु समुत्थितं न लभन्ते न संस्थापयितुम् ॥ व्याकरण - (जइ) अव्यय (कालुणियाणि) कर्म (कासिया) क्रिया (जइ) अव्यय (रोयंति) क्रिया (च) अव्यय (पुत्तकारणा) हेतु पञ्चम्यन्त (दवियं, समुट्ठिय) भिक्षु के विशेषण (भिक्खू) कर्म (णो) अव्यय (लब्मंति) क्रिया (संठवित्तए) प्रयोजनार्थक क्रिया । अन्वयार्थ - (जइ) यदि वे (कालुणियाणि) करुणामय वचन बोले अथवा करुणामय कार्य (कासिया) करें (जइ य) और यदि वे (पुत्तकारणा) पुत्र के लिए (रोयंति) रोदन करें तो भी (दवियं) द्रव्यभूत (समुट्ठिय) संयम पालन करने में तत्पर (भिक्खू) साधु को (णो लब्मंति) वे प्रव्रज्या से भ्रष्ट नहीं कर सकते हैं । (ण संठवित्तए) तथा वे उन्हें गृहस्थलिङ्ग में नहीं स्थापन कर सकते हैं। भावार्थ - साधु के माता-पिता आदि सम्बन्धी साधु के निकट आकर यदि करुणामय वचन बोलें, या करुणा जनक कार्य अथवा पुत्र के लिए रोदन करें तो भी वे, संयम पालन करने में तत्पर मुक्ति गमन योग्य उस साधु को संयम से भ्रष्ट नहीं कर सकते तथा वे उन्हें गृहस्थ लिङ्ग में स्थापन नहीं कर सकते । टीका - यद्यपि ते मातापितृपुत्रकलत्रादयः तदन्तिके समेत्य करुणाप्रधानानि विलापप्रायाणि वचांस्य-नुष्ठानानि वा कुर्युः, तथाहि "णाह पिय कन्त सामिय, अइवल्लह दुल्लहोऽसि भुवणंमि । वह विरहम्मि य निक्किव ! सुण्णं सव्वंति पडिहाइ ? ||१||1 "सेणी गामो गोट्ठी गणो व तं जत्थ होसि संणिहितो । दिप्पड़ सिरिए सुपुरिस ! किं पुण निययं घरहारं ॥२॥2 तथा यदि 'रोयंति यत्ति, रुदन्ति पुत्रकारणं सुतनिमित्तं कुलवर्धनमेकं सुतमुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति । एवं रुदन्तो यदि भणन्ति तं भिक्षु रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तिगमनयोग्यत्वाद्वा द्रव्यभूतं सम्यक्संयमोत्थानेनात्थितं तथापि साधुं न लप्स्यन्ते न शक्नुवन्ति प्रव्रज्यातो अंशयितुं भावाच्च्यावयितुं नाऽपि संस्थापयितुं गृहस्थभावेन द्रव्यलिङ्गाच्च्यावयितुमिति ॥१७॥ अपिच - 1. [नाथ कान्त प्रिय स्वामिन् अतिवल्लभ दुर्लभोसि भवने । तव विरहे च निष्कृप ! शून्यं सर्वमपि प्रतिभाति ।।१।।] 2. [श्रेणियामो गोष्ठी गणो वा त्वं यत्र भवसि सन्निहितः । दीप्यते श्रिया सुपुरुषः, किं पुनर्निजं गृहद्वारम् ॥२॥] १२८
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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