SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा १ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः स्वसंवित्त्यवष्टम्भेनाह- किं न बुध्यध्वमिति, अवश्यमेवंविधसामग्यवाप्तौ सत्यां सकर्णेन तुच्छान् भोगान् परित्यज्य सद्धर्मे बोधो विधेय इति भावः, तथाहि“निर्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लब्धे स्वल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुं युज्यते । वैड्-दिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे लातं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतम||१||" ___ अकृतधर्माचरणानां तु प्राणिनां 'संबोधिः' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रावाप्तिलक्षणा 'प्रेत्य' परलोकगतानां खलु शब्दस्यावधारणार्थत्वाद सदर्लभैव । तथाहि- विषयप्रमादवशात सकद धर्माचरणाद भ्रष्टस्यानन्तमपि कालं संसारे पर्यटनमभिहितमिति। किञ्च हुरित्यवधारणे, नैवातिक्रान्ता रात्रयः 'उपनमन्ति' पुनौकन्ते, न ह्यतिक्रान्तो यौवनादिकालः पुनरावर्त्तत इति भावः तथाहि - “भवकोटिभिरसलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे ? न च गतमायुर्भूयः प्रत्येन्यपि देवराजस्य?||१||" . नो नैव संसारे 'सुलभं' सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितं, यदि वा जीवितम् आयुस्त्रुटितं सत् तदेव सन्धातुं न शक्यत इति वृत्तार्थः । संबोधश्च प्रसुप्तस्य सतो भवति स्वापश्च निद्रोदये, निद्रासंबोधयोश्च नामादिश्चतुर्द्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने अनादृत्यद्रव्यभावनिक्षेपं प्रतिपादयितुं नियुक्तिकृदाह - “दव्वं निद्दावेओ दंसणणाणतवसंजमा भावे । अहिगारो पुण भणिओ, नाणे तवदंसणचरित्ते।।४२॥" इह च गाथायां द्रव्यनिद्राभावसंबोधश्च दर्शितः, तत्राद्यन्तग्रहणेन भावनिद्राद्रव्यबोधयोस्तदन्तर्वर्तिनोर्ग्रहणं द्रष्टव्यं, तत्र द्रव्यनिद्रा निद्रावेदो वेदनमनुभवः दर्शनावरणीयविशेषोदय इति यावत्, भावनिद्रा तु ज्ञानदर्शनचारित्रशून्यता । तत्र द्रव्यनिद्रया सुप्तस्य बोधनं, भावे-भावविषये पुनर्बोधो दर्शनज्ञानचारित्रतपःसंयमा द्रष्टव्याः । इह च भावप्रबोधेनाधिकारः स च गाथापश्चार्धेन सुगमेन प्रदर्शित इति । अत्र च निद्राबोधयोर्द्रव्यभावभेदाच्चत्वारो भङ्गा योजनीया इति ॥२॥ टीकार्थ - भगवान् आदि तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव स्वामी, भरत चक्रवर्ती के तिरस्कार से जिनको वैराग्य उत्पन्न हो गया था ऐसे अपने पुत्रों के प्रति यह कहते हैं अथवा सुर, असुर, मनुष्य, नाग और तिर्यञ्चों के प्रति भगवान् कहते हैं कि - हे भव्यों ! तुम ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी धर्म का बोध प्राप्त करो, क्योंकि फिर ऐसा अवसर मिलना कठिन है । एक तो मनुष्य का जन्म, उस पर भी कर्मभूमि, फिर आर्य्यदेश, एवं सुन्दर कुल में उत्पत्ति, तथा सब इन्द्रियों से पटु होना यह बड़ा ही दुर्लभ है । श्रवण, श्रद्धा आदि की प्राप्ति होने पर भी (भगवान् स्वसंवेदन के आलंबन से कहते हैं-) आप लोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र का बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? पूर्वोक्त सामग्री को पाकर अवश्य बुद्धिमान् को तुच्छ विषयों का सेवन छोड़कर सद्धर्म का बोध प्राप्त करना चाहिए । निर्वाण आदि सुखों को देनेवाला, जैनेन्द्र सम्बन्धी धर्म से युक्त इस मनुष्य भव को पाकर तुच्छ और असुन्दर काम-भोग का सेवन करना ठीक नहीं है, क्योंकि वैडूर्य आदि मणियों से युक्त रत्नाकर (समुद्र) मिल जाने तुच्छ काँच का टुकड़ा लेना उचित नहीं है । जिसने धर्माचरण नहीं किया है ऐसे पुरुष को परलोक में, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी धर्म की प्राप्ति दुर्लभ ही है। यहाँ 'खलु' शब्द अवधारणार्थक है । जो पुरुष विषय सेवन में पड़कर एकबार भी धर्माचरण से भ्रष्ट हो जाता है, वह अनन्त कालतक इस संसार में ही भ्रमण करता है, यह आगम में कहा है। यहाँ 'ह' शब्द अवधारणार्थक है। जो रात्रि, व्यतीत हो गयी है, वह फिर लौटकर नहीं आती है । आशय यह है कि व्यतीत हुआ यौवन आदि काल फिर लौटकर नहीं आता है। कहा भी है (भवकोटिभिः) अर्थात् करोड़ों जन्म के बाद भी जिसका प्राप्त होना कठिन है, ऐसे मनुष्य भव को पाकर भी मैं क्यों प्रमाद कर रहा हूँ ? जो आयु बीत गयी है, वह फिर लौटकर नहीं आती है, चाहे वह आयु इन्द्र की ही क्यों न हो ? इस जगत् में संयम प्रधान जीवन सुलभ नहीं है अथवा टूटी हुई आयु जोड़ी नहीं जा सकती है, यह इस वृत्त का अर्थ है । 'संबोध' शब्द का जागना अर्थ है । जो सोया हुआ होता है, उसको संबोध होता है और निद्रा के उदय होने पर शयन होता है । निद्रा और संबोध के नाम आदि चार प्रकार के निक्षेप होते हैं । इनमें नाम ११५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy