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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २५ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः छाया - अथाऽपरं पुराऽऽख्यातं क्रियावादिदर्शनम् । कर्मचिन्ताप्रनष्टानां संसारस्य प्रवर्धनम् ॥ व्याकरण - (अह) अव्यय (अवरं) (पुरक्खाय) (संसारस्स पवडणं) ये क्रियावादी दर्शन के विशेषण हैं (किरियावाइदरिसणं) कर्ता (कम्मचिंतापणट्ठाणं) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (संसारस्स) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (पवड्डणं) दर्शन का विशेषण । अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् (अवरं) दूसरा (पुरक्खाय) पूर्वोक्त (किरियावाइदरिसणं) क्रियावादियों का दर्शन है (कम्मचिंतापणट्ठाणं) कर्म की चिन्ता से रहित उन क्रियावादियों का दर्शन (संसारस्स पवड्डणं) संसार को बढ़ानेवाला है । भावार्थ - अब, दूसरा दर्शन, क्रियावादियों का है। कर्म की चिन्ता से रहित उन क्रियावादियों का दर्शन संसार को ही बढ़ानेवाला है । टीका - अथेत्यानन्तर्ये, अज्ञानवादिमतानन्तरमिदमन्यत् पुरा पूर्वमाख्यातं कथितम्, किं पुनस्तदित्याहक्रियावादिदर्शनम्, क्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम्आगमः क्रियावादिदर्शनम्, किं भूतास्ते क्रियावादिन इत्याह- कर्मणि ज्ञानावरणादिके चिन्ता प-लोचनं कर्मचिन्ता तस्याः, प्रणष्टा-अपगताः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, यतस्तेऽविज्ञानाद्युपचितं चतुर्विधं कर्मबन्धं नेच्छन्ति, अतः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, तेषां चेदं दर्शनम् दुःखस्कन्धस्य असातोदयपरम्परायाः, विवर्धनं भवति । क्वचित्संसारवर्धनमिति पाठः, ते ह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृद्धिमेव कुर्वन्ति नोच्छेदमिति ॥२४॥ टीकार्थ - 'अथ' शब्द आनन्तर्य्य अर्थ में आया है । अज्ञानवादियों के मत के पश्चात् यह दूसरा पूर्वोक्त क्रियावादियों का दर्शन है। जो लोग चैत्य-कर्म आदि क्रिया को प्रधान रूप से मोक्ष का अङ्ग बतलाते हैं, उनके दर्शन को 'क्रियावादिदर्शन' कहते हैं । वे क्रियावादी कैसे हैं ? यह कहते हैं- ज्ञानावरणीय आदि कर्म की चिन्ता यानी विचार करना 'कर्मचिन्ता' कहलाती है। उससे जो रहित हैं, वे कर्मचिन्ता प्रणष्ट कहलाते हैं । बौद्ध भिक्षु, अज्ञान आदि से किये हुए चार प्रकार के कर्मों को बन्धन दाता नहीं मानते हैं, इसलिए वे कर्म की चिन्ता से रहित हैं । उनका यह दर्शन, दुःखस्कन्ध यानी असातोदय-रूप दुःख-परम्परा को बढ़ानेवाला है । कहीं-कहीं "संसारवर्धनम्" यह पाठ है। इसका अर्थ यह है कि- चार प्रकार का कर्म-बन्धन दाता नहीं होता है, यह माननेवाले वे भिक्षु, संसार की वृद्धि ही करते हैं । उच्छेद नहीं करते हैं ॥२४॥ - यथा ते कर्मचिन्तातो नष्टास्तथा दर्शयितुमाह - - क्रियावादी, जिस प्रकार कर्म की चिन्ता से रहित हैं, सो बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं - जाणं काएणऽणाउट्टी, अबुहो जं च हिंसति । पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावज्ज ॥२५॥ छाया - जानन् कायेनानाकुट्टी, अबुथो यं च हिनस्ति । स्पृष्टः संवेदयति परमव्यक्तं खलु सावधम् ॥ व्याकरण - (जाणं) कर्ता का विशेषण (काएण) करण (अणाउट्टी) कर्ता का विशेषण (अबुहो) कर्ता का विशेषण (ज) कर्म (च) अव्यय (हिंसति) क्रिया (पुट्ठो) कर्ता का विशेषण (संवेदइ) क्रिया (परं) क्रिया विशेषण (अवियत्तं) (सावज्ज) कर्म के विशेषण (खु) अव्यय। अन्वयार्थ - (जाणं) जो पुरुष, जानता हुआ मन से हिंसा करता है (काएणऽणाउट्टी) परन्तु शरीर से नहीं करता है (य) और (अबुहो) नहीं जानता हुआ (जं हिंसइ) जो पुरुष शरीर से हिंसा करता है (परं पुट्ठो संवेदइ) वह केवल स्पर्श मात्र उसका फल भोगता है (खु) निश्चय (सावज्ज) वह सावध कर्म (अवियत्तं) व्यक्त-स्पष्ट नहीं है । भावार्थ - जो पुरुष क्रोधित होकर किसी प्राणी की मन से हिंसा करता है, परन्तु शरीर से नहीं करता है तथा जो शरीर से हिंसा करता हुआ भी मन से हिंसा नहीं करता है, वह केवल स्पर्श मात्र कर्म बन्ध को अनुभव करता है, क्योंकि उक्त दोनों प्रकार के कर्म बन्ध स्पष्ट नहीं होते हैं। टीका - यो हि जानन् अवगच्छन् प्राणिनो हिनस्ति, कायेन चानाकुट्टी 'कुट्ट-छेदने' आकुट्टनमाकुट्टः स विद्यते ६८
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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