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________________ बोखिया ... संवत १८२३ में आपने आबू तीर्थ का विकास । इसके अतिरिक्त मापने स्थानीय हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा के बीच शहरपनाह के पास एक बावड़ी बनवाई जो आज भी आपके नाम से मशहूर है। । आपके छोटे भाई मोजीसमजी का जन्म संवत् १७९१ में हुआ। भाप पर महाराणा अरिसिंहजी का पूरा भरोसा था। आप उनके फौज मुसाहिब हुए। संवत् १८२२ में श्रीजी हुजूर दुश्मनों पर चढ़े उस समय “विजयकटव" सेना में मौज मुसाहिब आप ही थे। इसके अतिरिक माप जावद, गोदवाद, चित्तौड़, कुम्भलगढ़, भीलवादा, खोड़, वगैरह कई मुकामों पर फ़ौज लेकर समय र पर दुश्मनों के मुकाबले पर भेजे गये थे। जिसके विषय में आपको कई परवाने प्राप्त हुए । जो इस समय इनके वंशजों के पास मौजूद हैं। उन परवानों से मालूम होता है कि उस समय कई सरदार आपकी अध्यक्षता में रहे। और कई स्थानों पर दुश्मनों से भापको मुकाबला करना पड़ा। : - पकलिंगदासजी-आपका जन्म संवत् १८१४ में हुमाभापको केवल बीस साल की उन्न में ही प्रधान का पद इनायत हुा । छोटी उमर होने से इस काम को बाप अपने काका मौजीरामजी की सहायता से करते रहे। मौजीरामजी के स्वर्गवासी होने पर आपने इस काम को छोड़ दिया। इसके पश्चात भाप फौज मुसाहिब बनाये गये । इस सर्विस में मापने राज्य की कई सेवाएं की। कई छोटी बड़ी लड़ाइयां मापने बहादुरी के साथ लड़ी। ___ संवत् १८५८ में जब इन्दौर के महाराजा यशवंतराव होलकर ने नाथद्वारे पर चढ़ाई की। उस समय उन्हें रोकने के लिये आप भी फौज लेकर नाथद्वारे पर पहुंचे थे । वहाँ के आक्रमण को रोक कर इसी साल माह महीने में आपने श्री ठाकुरजी को नाथद्वारे से उठाकर उदयपुर विराजमान किया । इसके पश्चात् भीसंवत् १८६५ तक आपको समय २ पर नाथद्वारे की रक्षा के लिए जाना पड़ा था । संवत् १८७१ में राजनगर में माधौकुँवर सुखाराम का आना सुनकर वहां किसनाजी भाऊ के साथ आप भी पहुंचे और गढ़ की रक्षा की। संवत् १८७६ में गुसाईजी कांकरोली के लिये राजतिलक का दस्तूर तथा १८७८ में जयपुर महाराजा श्री सवाई जयसिंहजी का टीला लेकर गये। - इसी प्रकार उपरोक्त प्रकार के मापने कई काम किये । भापकी सेवाओं से महाराणा हमीरसिंहजी भीमसिंहजी, जवानसिंहजी, सरदारसिंहजी और सरूपसिंहजी सभी प्रसन्न रहे। भाप मन्तिम समय तक अपने मालिकों की सेवा करते रहे । आपका स्वर्गवास ८७ वर्ष की अवस्था में संवत् १९०० में हुआ। उस समय के कागजों से पता चलता है कि करीब २ सभी उमराव, सरदार एवम् मरहठे अफसर आपकी इज्जत करते थे। तथा आपके साथ प्रेम रखते थे।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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