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________________ उँढ्ढी जाति की कई बड़ी २ सभाओं के सभापति के आसनों पर प्रतिष्ठित रह चुके हैं। इस वृद्धावस्था में भी आप सामाजिक कार्यों में बड़े उत्साह से भाग लेते हैं । श्री सिद्धराजजी डढ्ढा - आप ओसवाल समाज के अत्यन्त उत्साहित विचारों के नवयुवकों में से एक हैं । आपने बी० ए० एल० एल० बी० तक अध्ययन किया है। जाति सेवा के लिए आपके हृदय में भी बड़ी लगन है । आपके विचार समाज सुधार के सम्बन्ध में बहुत गर्म और छलकते हुए हैं। सामाजिक सभा सोसायटियों में आप भी बहुत उत्साह से भाग लेते हैं। सेठ अमरसी सुजानमल का खानदान, बीकानेर ( सेठ चांदमलजी डड्ढा सी० आई० ई० ) सेठ अमरसीजी तिलोकसीजी के तीसरे पुत्र थे I आपभी अपने पिता की ही तरह बुद्धिमान और व्यवहार कुशल पुरुष थे । आपने अपने व्यापार की वृद्धि के लिए सुदूर निजाम- हैदराबाद में मेसर्स अमरसी सुजानमल के नाम से अपनी फर्म खोली । यहाँ पर आपकी फर्म क्रमसे बहुत तरक्की को प्राप्त हुई । यहाँ की जनता और राज्य में इनका अच्छा सम्मान था ।* हैदराबाद रियासत से आपका लेन देन का काफी व्यवहार था । एक बार एक कीमती हीरा आपके यहाँ रहा था, जिसकी रक्षा के लिए स्टेट की ओर से सौ जवान आपके यहाँ तैनात रहते थे । आपके दावों मुकद्दमों के लिए निजाम सरकार ने एक स्पेशल कोर्ट नियत कर रक्खी थी जिसका नाम “ मजलिसे साहुवान” रक्खा गया था । इस कोर्ट में आपके सब दावे बिना स्टाम्प फ़ीस के लिये जाते थे तथा बिना मियाद के सुनवाई होती थी । शाह अमरसीजी के कोई सन्तान न होने से आपने अपने छोटे भाई टीकमसीजी के पुत्र नथमलजी को दत्तक लिया । सेठ नथमलजी के सेठ जीतमलजी और सुजानमलजी नामक दो पुत्र हुए । सेठ सुजानमलजी - आप भी बड़े व्यापार कुशल और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । आपने अपने व्यापार को बड़ी तरक्की दी । आप ही ने मेवाड़ स्टेट में अपनी फर्म को स्थापित कर सुजानमल सिरेमल के नाम से अपना कारबार प्रारम्भ किया। इतना ही नहीं आपने अपने व्यापार को पंजाब तक फैलाया और - लाहौर, अमृतसर इत्यादि स्थानों पर भी अपनी शाखाएं स्थापित कीं । आपके पाँच पुत्र हुए जोरावर मलजी, जुहारमलजी, सिरेमलजी, समीरमलजी और उदयमलजी । इनमें से पहले तीन भाई तो निःसन्तान स्वर्गवासी * श्रापकी व्यापारिक ताकत के सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध है कि एक बार बैङ्क ऑफ बङ्गाल की हैदराबाद शाखा से किसी विषय पर आपकी तनातनी हो गई थी, इससे उत्तेजित हो आपने बैक पर इतनी हुण्डियाँ एक साथ करवा दी कि बैक को भुगतान से इन्कार कर देना पड़ा, इसमें आपको बहुत रुपया खर्च करना पड़ा । २.६९.
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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