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________________ बापना और सौ सवार, ९ वाले, चार सोपे और नगारा निशान) कोटा की इस विशाल सेना के आमदोरफ्त में करीब एक लाख रुपये के खर्च हुआ, जो सेठ दानमलजी के भाग्रह करने पर भी कोटा नरेश ने नहीं लिया। इस संघ में खरतर गच्छ के जैनाचार्य श्री जिन महेन्द्रसरिजी के साथ और भी साधु साध्विएँ व यती थे जिनकी संख्या कुल मिलाकर नीच १५०० थी। इसके अतिरिक कई अन्य गच्छ के भाचार्य भी थे। इस संघने आबू , गिरनार, सारंगा, मी गोडवाह की पंच तीर्थी गई एक यात्रा की। रास्ते में कई स्थानों पर जीर्णोद्धार कराये, कई स्थानों में दादा वादियाँ बनवाई और बड़े बड़े स्वामी बत्सक भी किये। इस संघ में कममा १५ बाबा रुपया खर्च हुना। इस महान कार्य के लिए श्री संघ ने तथा. जैसलमेर दरबार में सेठ दानमसाजी को संघवी की पदवी प्रदान की। इसके अलावा आपने दो जैन मन्दिर-एक बूंदी रियासत में और दूसरा कोटा राज्यान्तर्गत ठिकाना कुनाड़ी में बनवाये। कोय शहर में एक दानवाची बनवाई जिसका दृश्य देखने दो योग्य है। इसमें श्री पाश्र्वनाथजी की मूर्ति स्थापित की है। इस प्रकार भाप धर्मकार्य करते हुये सम्वत् १९२५ में स्वर्गवासी हो गये। आपके कोई पुत्र न होने के कारण बापने अपने प्राता रतलाम बाले सेठ भभूतसिंहजी के तृतीय पुत्र हमीरमलजी को गोद लिया। सेठ हमीरमलजी का स्तान्त लिखने के पूर्व हम यहाँ संक्षेप में स्वशाम वाले वापनाभों का स्वान्त वित देना यावश्यक समझते हैं। सेठ हमीरमलजी के दोनों भाई सेठ पुनमचन्दजी और दीपचन्दजी रतलाम में ही रहे और वहीं पर अपना कारोबार करते रहे । आप रियासत जावरा भऔर अंग्रेज सरकार की नीमच छावनी के खजानची भी थे । इस तरह से मापने भी लाखों रुपये उपार्जन किये। धर्म में भी आपका अत्यन्त प्रेम था। दीपचन्दजो वे रतलाम में अपनी हवेली के सामने एक बगीचा बनवाकर उसमें एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया। लेकिन इसकी प्रतिष्ठा भापके हाथ से न हो सकी। सेठ पूनमचंदजी के कोई पुत्र न था। सेठ दीपचन्दजी के दो पुत्र थे, सेठ चाँदमलजी और सेठ सोभागमलजी। सेठ सोमागमलजी को सेठ पूनमचन्दजी के यहाँ दत्तक लाये, मगर आपका भी युवावस्था में ही स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् सेठ चाँदमलजी ने ही सब कारोबार करना आरम्भ किया। आपने भी अपने पूर्वजों की नीति अनुसार ब्यापार द्वारा लाखों रुपये पैदा किये और अपने पिता के संकल्प यानी जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा को पूरा किया। इस प्रतिष्ठा के उत्सव में आपने करीब २ लाख रुपये व्यय किए । इसके अतिरिक आपने और भी कई धर्म कार्य में बहुतसा रुपया खर्च किया । आपके कोई पुत्र न होने से सेठ आपने परीसिंहजी को ही अपना मालिक बनाकर रतलाम और कोटे को एक कर दिया। अस्त
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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