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________________ अगत् सेठ का इतिहास पंजर शेष बचा रहा। उनके पुत्र जगतसेठ खुशालचंद को भी बादशाह शाहमालम मे जगतसेठ की पदवी प्रदान की थी तथा कार्डलाइव ने भी उनको कम्पनी का बैंकर बनाया था। मगर एक तो खुशालचंद की उन कम होने से और दूसरे द्रव्य की कमी भाजाने से वे जैसी चाहिये वैसी व्यवस्था नहीं कर सकते थे । इन सब कठिनाइयों को दूर करने के लिये उन्होंने कार्यलाइव को एक निवेदन पत्र लिखा था जिसका उत्तर काइव मे जिस कठोरता के साथ दिया उसका भाव नीचे दिया जाता है। __ "तुम्हारे पिता के साथ मैं कितनी मेहरवानी रखता था और उनको कितनी सहायता पहुंचाता था यह तुम भली प्रकार जानते हो। तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के साथ मैं वैसा ही आंतरिक सम्बन्ध रखता हूँ, पर खेद की बात है कि तुम अपनी प्रतिष्ठा और जबाबदारी का कुछ भी खयाल नहीं रखते । हमारे बीच में यह समझौता हो चुका है कि तिजोरी की तीन चाबिए मिन २ स्थानों पर रहेंगी। पर उसके बदले तुम सब पैसे अपने पास ही रख लेते हो। इजारे भी तुम बहुत कम दरों में दे देते हो; राज्य का कर्जा पहले वसूल करने के बदले तुम अपने व्यकिगत कर्जे को जमीदारों से पहले वसूल करते हो। तुम्हारे इस व्यवहार का किसी भी रीति से समर्थन नहीं हो सकता । आज भी तुम पहले ही के समान पैसे वाले हो, अधिक लोभ की वजह से तुम्हें भसंतोष रहता होगा पर तुम अपनी जबाबदारियों से नीचे पढ़ते जा रहे हो और तुम्हारे पर से हमारा विश्वास दिन २ उम्ता जा रहा है।"* इसके कुछ समय पश्चात् क्लाइव ने जगतसेठ से कहलाया कि यदि प्रतिवर्ष तीन लाख रुपये कर तम स्वतंत्र होना चाहते हो तो हम प्रतिवर्ष इतना रुपया देने के लिये तैयार है। मगर मशाल चन्द ने उत्तर दिया कि यदि मैं अपने खरच को अधिक से अधिक घटाऊँ तो भी तीन लाख रुपये में मेरा पूरा नहीं पड़ सकता। इसके पश्चात् वारेन हेस्टिंग्ज के जमाने में जगतसेठ की स्थिति और भी बिगड़ी और उन्होंने हेस्टिंग्ज को भी एक पत्र लिखा। उस समय हेस्टिंग्ज राजधानी से बहुत दूर था । उसने कलकत्ता वापिस लौटकर इस विषय का संतोषजनक जवाब देने का आश्वासन दिया मगर दुर्भाग्य से उसके कलकत्ता वापिस लौटने के पहिले ही खुशालचन्दजी का स्वर्गवास हो गया। __जगतसेठ खुशालचन्द बड़े धार्मिक पुरुष थे। तीर्थराज सम्मैदशिखर पर इन्होंने कितने ही जैन मन्दिर भी बनवाये। वहाँ के शिला लेखों में कई स्थानों पर खुशालचन्द का नामोल्लेख मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि जिस जगतसेठ ने लगभग १०८ तालाव बनवाये थे वे ये खुशालचन्द ही थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने मकान के पास खुशाल बाग नाम का एक बगीचा निर्माण किया था । खशालचन्दजी के कोई संतान न होने से उनके भतीजे हरकचंदजी उनके यहाँ पर दसक आये । इनके समय में इस खानदान की दशा और भी अधिक बिगड़ गई। इन्हीं के समय में इस खानदान का धर्म भी जैन से बदल कर वैष्णव हो गया। ऐसा कहा जाता है कि हरकचंदजी के कोई संतान न होने से एक वैष्णव सन्यासी ने इन्हें संतान का लालच देकर वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। इन्होंने अपने मकान के पास एक वैष्णव मंदिर का निर्माण भी करवाया। * Hunter's statistical account of Murshidabad page 263.
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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