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________________ ओसवाल जाति का इतिहास में न हो सकी तब सब लोगों ने आचार्य श्री से प्रार्थना की कि "भगवान् यहाँ पर साधुओं के लिये पवित्र भिक्षा * की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है ऐसी स्थिति में मुनियों का इस स्थान पर निर्वाह होना कठिन है। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा “यदि ऐसा है तो यहाँ से विहारकर देना चाहिये ।" यह देखकर वहाँ की अधिष्टायिका चामुंडादेवी ने प्रगट होकर कहा कि महात्मन् , इस प्रकार से आपका यहाँ से चला जाना अच्छा न होगा, यदि आप यहाँ पर अपना चातुर्मास करेंगे तो संघ और शासन का बड़ा लाभ होगा। इस पर आचार्य ने मुनियों के संघ को कहा कि जो साधु विकट तपस्या करने वाले हों वे यहाँ रह जायें शेष सब यहाँ से बिहार कर जायें । इस पर से ४६५ मुनितो आचार्य की आज्ञा से विहार कर गये । शेष ३५ मुनि तथा आचार्य चार २ मास की विकट तपस्या स्वीकार कर समाधि में लीन हो गये । इसी बीच देवयोग से एक दिन राजा के जामात्र त्रिलोकसिंह + को रात्रि में सोते समय भयंकर सर्प ने डस लिया है। इस समाचार से सारे शहर में हाहाकार मच गया। बहुत से मंत्र, तंत्र शास्त्री इलाज करने के लिए आये मगर कुछ परिणाम न हुआ। अंत में जब उसे स्मशान यात्रा के लिए ले जाने लगे तब किसीने इन आचार्य श्री का इलाज करवाने की भी सलाह दी। जब राजकुमार की रथी भाचार्य श्री के स्थान पर लाई गई तो भाचार्य श्री के शिष्य वीर धवल ने गुरू महाराज के चरणों का प्रक्षालन कर राजकुमार पर छिड़क दिया। ऐसा करते ही वह जीवित हो उठा । इससे सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और राजा ने आचार्य श्री से प्रसन्न होकर अनेकों थाल बहुमूल्य जवाहरातों के भर कर आचार्य श्री के चरणों में रख दिये। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि राजन् हम त्यागियों को इस द्रव्य और वैभव से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि आप लोग मिथ्यात्व को छोड़कर परम पवित्र जैनधर्म को श्रद्धा सहित स्वीकार करे, जिससे आपका कल्याण हो । इस पर सब लोगों ने प्रसन्न होकर आचार्य श्री का उपदेश श्रवण किया और श्रावक के बारह व्रतों को श्रवण कर जैनधर्म को ग्रहण किया XI तभी से ओसियाँ नगरी के नाम से इन लोगों की गणना ओसवाल वंश में की गई। * कुछ लोगों का मत है कि उस समय भाचार्य रत्नप्रभसूरि के साथ केवल एक ही शिष्य था भौर उसे भी जब मिदा न मिलने लगी तब उसने जंगल से लकड़ी काट कर लाना और पेट भरना शुरू किया। +कुछ ग्रन्थों में राजा के जामात्र के स्थान पर राजा के पुत्र का उल्लेख हैं। * कुछ स्थानों पर ऐसा उल्लेख है कि प्राचार्य रत्न प्रभ सूरि ने देवी के कहने से रुई की पूणो का सर्प बना कर भरी सभा में राजा के पुत्र को काटने के लिए भेजा था। ' ४ ऐसी मी किम्बदन्ती है कि उस समय उस नगरी में जितनी जातियाँ थीं। याने ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शद सबने मिलकर जैनधर्म स्वीकार किया। इन्हीं की वजह से जैनधर्म में कई ऐसे भी गोत्र पाये जाते हैं जो उन जातियों के नाम के सूचक है।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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