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________________ प्रोसवाल जाति और प्राचार्य को बहुत समझाया और आप से संसार में रहते हुए धर्म पालन का अनुरोध किया। पर आप अपने निश्चय से तिल भर भी न डिगे और आपने संवत् १५९६ में उक्त सूरिजी के पास से दीक्षा ली। मुनि हरिहर्षजी से आपने समग्र साहित्य का अध्ययन किया। इसके बाद आप गुरू की आज्ञा लेकर धर्मसागर नामक एक मुनि के साथ दक्षिग के देवगिरी नामक एक स्थान में नैयायिक प्र.ह्मण के पास न्याय ज्ञान का अध्ययन करने के लिये गये। वहाँ पर आपने तर्क परिभाषा, मितभाषिणी, शषवर, मणिकण्ठ, प्रशस्तपद भाष्य, वर्द्धमान, वर्द्धमानेन्दु, किरणावली आदि अनेक ग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया । अध्ययन करने के बाद आपने अपने पंडितजी को अच्छा पारितोषिक दिलवाया । इसके बाद आपने ग्यारण. ज्योतिष. सामुद्रिक और रघुवंशी श्रादि काव्यों में पारदर्शिता प्राप्त की। माप के सारे अध्ययन का खर्च जैन संघ तथा सेठ देवसी और उनकी पत्नी देती थी। जब आप विद्याध्ययन कर सं० १६०० में अपने गुरू के पास मलाई ( नारदपुर) नामक स्थान पर पहुंचे तब आपको उन्होंने पंडित की पदवी प्रदान की। इसके एक वर्ष बाद संवत् १६०८ में आप के गुरू ने आप को उपाध्याय नामक पद मे विभूषित झिया। इसके दो वर्ष बाद अर्थत् संवत् १६१० में भाप भाचार्य की उच्च उपाधि से विभूषित किए गये। इस समय दूधाराज के जैन मंत्री चांगा सिंघी मे बढ़ा भारी उत्सव किया। पह गंगा राणपुर के सुप्रसिद्ध मन्दिर बनवाने वाले सिंघवी धरनाक का वंशज था। इस समय सिरोही के तत्कालीन नरेश ने अपने राज्य में हिंसा बन्द करदी। ___ इसके बाद दोनों आचार्य देव पाटण गये और वहाँ के सूबेदार शेरनों के सचिव समर्थ भंद. साली ने आपके सन्मान में गच्छानुज्ञा महोत्सव किया। यहाँ से आप सूरत और वहाँ से वरदी नामक गाँव में गये। इस प्राम में संवत् १६२। में श्री विजयदानसूरि का स्वर्गवास हो गया । इससे होर विजयसुरि तपेगच्छ नायक हो गये। संवत् ११२८ में पाप विहार करते हुए अहमदाबाद पधारे और वहाँ मापने विजयसेन मुनि को आचार्य पद प्रदान किया। यहीं लूंका गच्छ के मेगळी कवि ने मूर्शिनिषेधक गच्छ स्याग कर अपने तीन साधुओं सहित हीर विजयसूरि का शिष्यस्व ग्रहण किया और उन्होंने अपना नाम उद्योतविजय रक्खा। इस बात का उत्सव सम्राट अकबर के राजमान्य स्थानसिंह नामक भोसवाल सज्जन ने किया। ये स्थानसिंह इस समय सम्राट अकबर के साथ भागरे से गुजरात भाये थे। ___धीरे २ हीरविजयसूरि के अलौकिक तेज की बात सारे देश में फैल गई । उनकी कीर्ति की गाथा तत्कालीन सम्राट अकबर के कानों तक पहुंची। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्राट अकबर ने इस महा अलौकिक पुरुष के दर्शन करने का निश्चय किया। सम्राट ने अपने गुजरात के सूबे साहिब खान को फरमान भेजा कि वे बड़ी नम्रता और भदव के साथ श्री हीरविजयसूरिजी से यह प्रार्थना करें कि
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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