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________________ ओसवाल जाति और प्राचार्य विद्वान थे, उन्होंने अल्ल (२) की राजसभा में दिगम्बरियों को परास्त किया था। इसके अलावा उन्होंने सपादलक्ष, त्रिभुवनगिरि आदि राजाओं को जैन धर्म में दीक्षित किया था। ये बड़े जबर्दस्त तर्कवादी थे। आपके शिष्य समुदाय के माणिकचन्द्रसूरि ने अपने पाश्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में आपके गुणों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। मुनी न्यायवनसिंह भाप प्रमुन्नसूरि के शिष्य थे। सुप्रख्यात आचार्य अभयसेनसूरि सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मति तर्क नामक ग्रंथ पर आपने तत्त्ववोध विधायनी टीका रची, जो "वाद महार्णव' नाम से प्रख्यात है। इस पर से आपकी अगाध विद्वत्ता का पता चलता है। यह अनेकान्त दृष्टि का दार्शनिक ग्रंथ है और उसमें अनेकांत रष्टि का स्वरूप और उसकी न्याति तथा उपयोगिता पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसमें सैकड़ों दार्शनिक ग्रंथों का दुहन करके जैन धर्म के गूदातिगू द दार्शनिक सिद्धान्तों को बहुत ही उत्तमता के साथ समझाया गया है। महाकवि धनपाल सुप्रख्यात विद्याप्रेमी महाराजा भोज मालवाधिपति की सभा में जो नवरत्र थे, उनके महाकवि धनपाल.का भासन अपना विशेष स्थान रखता था। बाल्यावस्था से ही महाराजा भोज और धनपाल में बड़ी मैत्री का सम्बन्ध था। महाराज ने इनकी अगाध विद्वत्ता से प्रसन्न होकर इन्हें "सरस्वती" की उच्च उपाधि से विभूषित किया था। महाकवि धनपाल पहिले वैदिक धर्मावलम्बी थे पर पीछे से अपने बन्धु सोभनमुनि के संसर्ग से उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया । इतना ही नहीं, उन्होंने महेन्द्रसूरि नामक जैन साधु के पास से स्याद्वाद् सिद्धान्त का अध्ययन कर जैन दर्शन में गम्भीर पारदर्शिता प्राप्त की थी। महाकवि धनपाल के इस धर्म परिवर्तन से महाराजा भोज को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने धनपाल से इस संबंध में शास्त्रार्थ किया। पर इसमें महाकवि धनपाल ने जैन धर्म के महत्वको महाराजा भोज पर अंकित किया। महाकवि धनपाल बड़े प्रतिभाशाली कवि और ग्रंथकार थे । आपकी लिखी हुई "तिलक मारी" बड़ा ही उच्च श्रेणी का ग्रंथ है। इसमें जैन सिद्धान्तों का गम्भीर तथा सुन्दर विवेचन है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से महाकवि धनपाल के उदार हृदय का पता लगता है, आपने स्वमत तथा (२) अल्लू से शायद मेवाड़ के भालू रावल का बोध होता है। संवत् १००८ के शिला लेखों से शात होता है कि वह मेवाड़ के बाहर (भाघाट) प्रान्त में राज करता था १९९
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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